भारत एक ऐसा लोकतांत्रिक देश हैं, जहां राज्यों को भी कई मामलों में स्वतंत्रता मिली है। अब वर्तमान सरकार इस ढांचे को भी अपने फायदे के लिए ढाह देना चाहती है। राजकोष में इस किस्म की मनमानी को लेकर सभी गैर भाजपा शासित राज्य मुखर विरोध कर रहे हैं। इसके बीच ही दक्षिण भारत के कुछ राज्यों की सरकारों ने करों में अपनी हिस्सेदारी को लेकर आपत्ति जताई है यानी केंद्र सरकार के राजकोषीय संघवाद पर प्रश्नचिह्न लगाया है।
बजट सत्र के दौरान यह एक किस्म की परिपाटी सी बन गई है कि दक्षिण भारत के कुछ राज्यों की सरकारों ने करों में अपनी हिस्सेदारी को लेकर आपत्ति जताई है यानी केंद्र सरकार के राजकोषीय संघवाद पर प्रश्नचिह्न लगाया है। उनकी शिकायत नई नहीं है लेकिन हाल के वर्षों में उसके साथ अतिरिक्त राजनीतिक अर्थ जुड़ गए हैं। स्वाभाविक सी बात है कि जिन राज्यों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार नहीं है उनकी ओर से शिकायत होना स्वाभाविक है।
यह याद किया जा सकता है कि जिस समय केंद्र में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार थी तब गुजरात की सरकार ने भी राजकोषीय संघवाद को लेकर चिंता प्रकट की थी। परंतु कुछ बातें ऐसी हैं जिन पर राजनीति से परे भी विचार करना आवश्यक है। राजकोष में जो राशि आती है और कुछ राज्यों को जो हासिल होता है उसके बीच का अंतर इतना अधिक हो रहा है कि इस ओर राजनीतिक ध्यान आकृष्ट होना लाजिमी है। केंद्र सरकार को यह बात समझनी होगी कि वह देश के संसाधनों पर प्राथमिक तौर पर हक नहीं जमा सकती है।
खासकर यह देखते हुए कि विकास संबंधी कई कार्य मुख्य तौर पर राज्य सरकारों द्वारा किए जाते हैं। एक संस्थागत व्यवस्था जो हमारे देश में कारगर रही है वह यह है कि एक के बाद एक विभिन्न वित्त आयोगों ने कर विभाजन का जो फॉर्मूला तैयार किया, उसका मान रखा गया। यह केंद्र सरकार पर निर्भर करता है कि वह फॉर्मूले को स्वीकार करे या अस्वीकार करे लेकिन आयोग की अनुशंसाओं को हमेशा स्वीकार किया गया है।
बहरहाल इस अवसर पर केंद्र सरकार ने हस्तांतरण के फॉर्मूले का भावना के स्तर पर उल्लंघन किया है। पिछले कुछ वर्षों में उन उपकरों और शुल्कों में बढ़ोतरी हुई है जो राज्यों के साथ बांटे जाने वाले करों में नहीं आते। इससे केंद्र के पास वे संसाधन बढ़े हैं जिन्हें राज्यों के साथ साझा नहीं करना पड़ता। जाहिर सी बात है कि इससे केंद्र और राज्यों के बीच आपसी विश्वास में कमी आएगी।
यह ऐसा व्यवहार है जिस पर लगाम लगाने की आवश्यकता है। केंद्र सरकार ने विकास योजनाओं पर होने वाले व्यय के लिए हस्तांतरण पर शर्तें लगाना भी आरंभ कर दिया है। देश के मौजूदा ढांचे को देखें तो केंद्र सरकार स्वाभाविक तौर पर दक्षिण भारत के राज्यों की इस बुनियादी शिकायत को दूर नहीं कर सकती है कि गरीब और अधिक आबादी वाले राज्यों की तुलना में उनसे ज्यादा कर वसूला जा रहा है। यह एक राजनीतिक प्रश्न है जिसे चतुराईपूर्वक हल करना होगा। अतीत में ऐसा किया जाता रहा है। परंतु केंद्र सरकार इस समस्या का पर्यवेक्षण करते हुए सावधानीपूर्वक कदम उठा सकती है।
केरल के सुझाव के मुताबिक केंद्र सरकार को राज्य निवेश फंडों से ऋण लेने संबंधी दिक्कतों की समीक्षा करनी चाहिए। उसे उपकरों और शुल्कों के जरिए राजस्व संग्रह भी कम करना चाहिए। विभिन्न विकास योजनाओं के लिए राज्यों को हस्तांतरण में मनमानापन कम करने की भी पर्याप्त वजह है। इसमें से कुछ स्वचालित बनाया जा सकता है।
इसके अलावा सरकारी व्यय प्रबंधन प्रणाली का डिजिटलीकरण किया जा सकता है। अन्य प्रकार के हस्तांतरण के लिए स्पष्ट और बिना भेदभाव की व्यवस्था का पालन किया जाना चाहिए। एक तरीका यह भी है कि शर्तों से निपटने के लिए तकनीकी उपाय अपनाए जाएं। परंतु राजकोषीय संघवाद पर जोर देने की व्यापक समस्या को केवल राजनीतिक ढंग से ही हल किया जा सकता है।
प्रधानमंत्री ने अतीत में मुख्यमंत्री रहते हुए केंद्र के नियंत्रण और हस्तांतरण को लेकर चिंता जताई थी। ऐसे में वह इस विषय पर पहल कर सकते हैं। देश की विकास संबंधी आवश्यकताओं को देखते हुए केंद्र और राज्यों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध महत्त्वपूर्ण हैं। बड़ी नीतिगत चुनौती यह है कि उन राज्यों में राजकोषीय संसाधनों का प्रभावी इस्तेमाल किया जाए जो वृद्धि और राजस्व जुटाने में पीछे छूट गए हैं। इसके अलावा केंद्र की तरफ से मनमाने ढंग से राज्यों को कोष आवंटित करने की वजह से भी परेशानियां बढ़ रही हैं और यह भारतीय संविधान में वर्णित देश की मूल अवधारणा को नुकसान पहुंचा रहा है।