राजलक्ष्मी सहाय
हर पंन्द्रह अगस्त को भीखम तिरंगा फहराता है। सेक्रेटेरियट के ठीक सामने सड़क के उस पार मैदान में एक विशाल बरगद खड़ा है। पेड़ की किसी लम्बी सी डाली को काट-उसके पत्ते तोड़ चिकना करता है। उसी में तिरंगा बांध फिर बैसाखी के सहारे खडे होकर सलामी देता जन गन मन गाता है सुलभ भोजनालय का वीरू, फूल मालाकार, बिसुन धुसका वाला, पलटू -चायवाला, बीगु सब उसके इर्द गिर्द खड़े। ना जाने क्यों कैसे उस वक्त अदृश्य सी तरंग प्रवाहित होने लगती है वहां की हवा में। वह जय जवान -जय किसान का नारा लगता है। भारत माता की जय और वंदे मातरम का नारा लगाने में पूरी ताकत झोंक देता है। शाम होते ही तिरंगा अपनी पोटली में सहेजकर रख देता है जो हर वक्त उसके पास रहती है।
बरगद की छांव में पैर पसारकर भीखम बैठा रहता । पास ही उसकी बैशाखी पड़ी होती । आते जाते लोगों की नजर पड़ती उस पर । सबको यही लगता वह भिखारी है। मगर उसके हाथ में कोई कटोरा नही होता । फटेहाल बढे हुए बाल -लम्बी दाढ़ी और एक पैर की लचारी । कुल मिलाकर भिखमंगे की तस्वीर बन ही जाती ।
सेके्रटेरियट के बड़े से फाटक में आती जाती गाड़ियों को वह देखता । लाल पीली बती वाली, सायरन बजाती गाड़ियां। सिपाहियों क ा सलाम ठोंकना। गाड़ी पार होते ही कमर लचकाकर टेढे खड़े सिपाही। कोई खैनी मलता तो कोई सिमेंट की बेच पर लदक जाता। इसका खूब हिसाव था भीखम को कि कितनी बार सायरन वीली गाड़ियां उस फाटक में घुसती और निकलती है। लेकिन कभी दिखाई नही दिया कि काले शीशे के पीछे चेहरे कौन से है।
सायरन की शान और चेहरा छिपाना ? कभी समझा नहीं भीखम । विवशता है या डर? कैसा अपराध किया कि नजर मिलाने की हिम्मत नहीं। दो तीन बार उसने कोशिश भी की थी भीतर के चेहरे को बाहर निकालने की। हाथ हिलाया, एक कागज का टुकड़ा हिलाया जिसे वह फाटक के भीतर पहुंचाना चाहता था। मगर बेकार। कोई नजरें घुमाये तब तो। और फिर एक सिपाही ने उसकी बैसाखी में इतनी जोर का डंडा मारा। बैसाखी दरक गयी। किसी तरह रस्सी से बांधकर बचा रखा था बैसाखी।
हवाई जहाज से कम तेज नही चलती थी उनकी गाड़ियां। सुबह-सुबह बीगन चायवाला अपनी गुमटी खोलता । उसने कभी नहीं पूछा भीखम से कि वह कौन है। और क्यों वहां बैठा रहता है। मगर एक चुक्कड़ चाय हाथ में धरा देता। सुड़-सुड़ करके चाय सुड़क लेता था भीखम। थोड़ी देर बाद ठेले पर धुसका धुधनी की मारा मारी होती।
पलटू को पता है फाटक पर तैनात सिपाही लोगों का मुफ्त अधिकार है उसके धुसके पर। चटखारा लेकर खाते है और वर्दी में हाथ पोंछते निकल जाते है। सिपाहियों की तीमारदारी में पलटू का चार पांच धुसका रोज जल जाता है। उन्ही को एक दोने में डाल उस पर घुघनी छिड़ककर भीखम को धरा देता है।
जले हिस्से को तोड़-तोड़ फेंक देता है भीखम आधा आधा खा लेता है। नास्ता निपट जाता है। उसका थोड़े से फासले पर ही सुलभ भोजनालय है। बड़े से टेबल पर भात दाल तरकारी की तीन बड़ी बड़ी हांड़ियां होती हैं। भीखम की नजर रहती है उस छोकरे पर जितनी बार दाल निकलता है। उतनी बार पानी मिलता है। अन्त में बर्तन धोनें से पहले पीले रंग के पानी में डूबा भात और तरकारी का एकाध आलू उसके सामने रख देता है।
एक दिन पूछा था छोकरे ने ‘‘तुम कौन जात के हो’’
‘‘भूखा’’ जवाब था भीखम का।
फिर कभी जात न पूछा उसने। नियम से खाना खिलाता रहा। शाम तक सब अपना -अपना सामान समेट लेते । रात की कोई व्यवस्था नही। बरगद की मोटी सी जड़ पर अपनी पोटली रख तकिया बना सो जाता था भीखम।
सोते में भी जागते में भी भीखम की आंखों में एक ही सपना कौधता है। सौतेली मां ने चुल्हे से गरम कोयला निकालकर उसके मुंह पर सटा दिया था। तुरंत होठों पर फोड़े उग आए। तड़पता हुआ -चीखता हुआ धर से बाहर दौड़ गया वह। पास के पोखर में छलांग लगा दी। पानी की ठंढ़क से कुछ राहत हुई। तकिया का गिलाफ धोने के लिए निकालने पर सौतेली मां ने उसमें रोटी के टुकड़े देखे । जरूर रोटी चुराकर खाता है भीखम। उसी की सजा थी यहां गांव की पगडंड़ी पर ुपागलों की तरह भागता वह सड़क पर जा पहुंचा । सेना की गाड़ी खड़ी थी । फौजियों के सामान लद रहे थे। नजर बचाकर वह सामानों के बीच दुबक गया।
रास्ते भर उठा पटक करती गाड़ी। रह रहकर होठों का फोड़ा टीसता। कभी सुबकता, कभी चुप। कभी किसी बक्से के कोने से चोट लगती तो कभी कोई झोला सर पर गिरता । छ: सात घंटे बाद गाड़ी रूकी चाय पानी के लिए। फौजी उतरे खलासी ने पीछे की डिक्की खोला। भीखम पर नजर पड़ी। एक बक्से पर दोनों घुटने मोड़कर सो रहा था। घसीटकर निकाला ।।
‘‘ कौन है रे ’’
‘‘मारना मत भैया, अनाथ हैं, सौतेली मां ने मुंह दाग दिया । हमें भी ले चलों अपने साथ।’’
भीखम का सूजा चेहरा और भयानक लग रहा था चाहकर भी खलासी तमाचे न लगा सका तभी चार फौजी आ गए
‘‘ऐ कौन हो जी’’
‘भैया मारो नहीं, हम भीखम – अनाथ । सेवा करेगें जो कहो करेगें।’
‘‘लेकिन हम लोगों तो वार्डर पर जा रहे । लड़ाई चल रही बहुत ढंठ है । हड्डी गल जाएगी तेरी’’
‘‘मेरे बाप की नयी जोरू ने कभी ओढ़ना नहीं दिया ये हड्डी गलने वाली नहीं बाबू’’
उस बियाबान जंगल में भीखम को अकेला छोड़ देना मुनासिब न लगा। फौजियों ने उसे गाड़ी पर चढ़ा लिया।
रास्ते भर भीखम कभी एक फौजी के पैर के पास तो कभी दूसरे के पांव के पर बैठता।
‘‘पैर दवा दें साहब। उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना पैर दबाने लगता। ’’
‘‘माथा चीप दे बाबू ? जबरदस्ती खड़े होकर चम्पी भी करने लगता’’ भीखम ने पूछा
‘‘लाड़ई शुरू है साहब हम तो मर मर कर रोज जिन्दा रहे धरती मइया के लिए मर जाते तो पुन्न: हो जाता ’’
‘‘क ौन कहता है ऐसा’’
‘‘गांव के मास्टर जी ’’
‘‘कया कहते थे’’
‘‘कहते थे फौजी ही भारत माता के सपूत हैं और कहते थे कि फ ौजी होने के लिए दूसरा कलेजा होता है। ’’
‘‘कैसा कलेजा भीखम’’
‘‘वैसा जैसा बजरंगबली का चीरकर दिखाएं तो भारत माता दिखें – हाथ में तिरंगा लिये’’
भीखम के जख्मी होठों से मानों फूल बरस रहे थे । तीन दिनों के सफर में ही भीखम सबका अपना सा हो गया ।
धीरे -धीरे जंगल हरियाली सब छूट गए। सन्नाटा – खाली सड़क चारों तरफ बर्फ । सैनिको के तम्बू ।
भीखम गाड़ी से उतरा वर्फीली हवा की ठंड़ी छुवन से उसके होठों को शीतलता मिली। फफोलों में ठंढक आई एक फौजी उसे लेकर मेजर साहब के पास गया ।
‘‘रास्ते में घायल मिला था यह अनाथ है। अनुमति हो तो तम्बुओ में सफाई के लिए रख ले’’
दोनों हाथ जोड़कर खड़ा था भीखम। गालों पर आंसु की धार।
मेजर साहब ने पुछा-
-कहां घर है?
-कही नही,
-अपना कोई ?
‘‘कोई नही’’ अच्छा ठीक है। मेजर ने कहा
फौजियों का रसोइया था करीम खान । उसी के साथ लग गया भीखम चट्टान पर पत्थर के टुकडे से घरड़-घरड़ मसाला रगड़ता तो कान खडे हो जाते फौजियों के (कही गोलियां तो नही खड़क रही) रात होती तो एक एक फौजी के तलवे में कड़वे तेल की मालिश करता।
‘‘बाप रे पैर तो एकदम बरफ का सिल्ली है साहब घंटा भर मलेंगें तब जाकर होगा गरम ’’
वहीं देखा था भीखम ने कि जब मुल्क सोता है तो फौजी लोग चार चार आंखों से देखते हैं। एक एक जैसे वीर भगत। मरने की होड़। हर रोज घायलों की गाड़ी से एक दो सैनिक लाते तिरंगे से लिपटे।
‘अरे सुबह ही तो कड़क चाय पिलाये थे इनको। अभी इतने ठंढें कैसे ’
भीखम को यकीन न होता।
तेल लाकर मलने लगता था पैर में। गांव की देवी माई से मन्नत मांगता।
‘हे भगवान इनकी माई कैसे जियेगी’ सर पटक पटक रोता भीखम।
चौबीसों घंटे गोली की धांय धांय गूंजती वादियों में। कभी दूर धमाका होता तो बर्फ की चट्टानों से जमी धरती भी दरक जाती। बिल्ली चूहे का खेल होता सरहद तक। जैसे गांव में आइस पाइस- धप्पा और धांय।
कैसा ड़रावना माहौल मगर भीखम मस्त।
सैनिक घरों से आयी चिट्टियां पढ़ते तो भीखम उनके चेहरे पढ़ता। उसे खूब पता था मां की चिट्ठी रूलाती है, घरवाली की तड़पाती है भाई का खत कलेजा मरोड़ता है। आंसू, मुस्कान,बेबसी सबकुछ नजर आता था उसको।
करीम के संग रहकर भी भीखम उस्ताद हो गया था खाना बनाने में
उसकी बनाई दाल तरकारी चाट चाट कर खाते फौजी।
भीखम तुम तो घर की याद दिला देते हो।
आपलोग इत्ता भारी काम संभालते हो। डटकर खायेंगे नहीं तो कैसे होगा।
न जाने कितने बटालियनों के लिए भीखम ने खाना बनाया। एक रोज सुबह की चाय पिला रहा था भीखम फौजियों को।
भीखम तुम कभी घर नहीं जाते।
कहां जाएं साहब, मेरा कोई नहीं।
कोई तो होगा?
‘‘बाप है, दूसरी जोरू के साथ रहता है। एक साथी था लखन। उसकी मां कभी कभी खाना खिलाती थी मुझे। कभी नहीं जाना मुझे गांव। यहीं ठीक है साहब। धरती मइया का साक्षात दरसन होता है यहां ’’
‘‘तुम्हें बंदूक चलाना आता है’’
‘‘नहीं लेकिन फौजी बाबू को रोज देखते हैं। जरूरत लगे तो चला भी लेंगे साहब’’
और तभी तंबू के चारों तरफ से गोलियों की बौछार की आवाज। अफरा-तफरी
लगता था कुछ आतंकी वेष बदलकर उस ओर आ पहुंचे थे। फौजी जबावी हमला करते थे। गोलियां थमी। चारों ओर लाशें बिछी थी। नकाबपोश थे।
मेजर दिलीप सिंह बुखार में पड़े थे। कई बार पानी की पट्टी दी थी भीखम ने।
अचानक देखा भीखम ने। एक नकाबपोश मेजर की ओर बढ़ रहा था। दीवार पर टंगी बंदूक खींचा और भीखम ने दनदन गोली दाग दी। गिर पड़ा नकाबपोश मगर मुड़कर भीखम की ओर निशाना दाग दिया। पैर छलनी हो गया। खून बह निकला। मेजर अवाक, फौजी दौड़ पड़े। यहां माजरा साफ था। फौजियों ने उसे कंधे पर उठा लिया। सच्चे बहादुर हो तुम भीखम। मेजर साहब की जान बचाई।
भीखम के पैर में जहर फैल गया। पैर काटने की नौबत आ गयी। तीन महीने बाद वैसाखी लेकर निकला।
‘‘तुम अपने गांव चले जाओ भीखम’’ साहब का हुक्म था। लेकिन कहां जाएं।
‘‘कागज बनाकर दे देते हैं। सरकार मुआवजा देती रहेगी।’’
फौजियों ने ट्रेन में बैठा दिया भीखम को। एक एक से गले लग रोया था वह। मानों कालापानी की सजा भुगतने जाता हो।
अपने गांव के स्टेशन के पास उतरा। सबसे पहले उसी पोखर के पास गया जहां फफोलों की जलन से व्याकुल कूद गया था। किसी ने नहीं पहचाना उसे। आखिर चालीस सालों बाद लौटा था। उसके खपरैल की जगह दो मंजिला मकान था। फाटक के पार खड़ा हुआ तो एक विधवा स्त्री ने ड़पट दिया। सोचा कोई लंगड़ा भिखारी है। बाप की जोरू को पहचान गया था वह।
भूखा प्यासा मंदिर पहुंचा। एक भलामानुष भिखमंगों को बैठाकर खिचड़ी खिला रहा था। उसे भी खिचड़ी परोसी गयी।
उसके बाद गांव में अपनी आपबीती जिसे कहता, हंसने लगता। मानने की बात तो दूर।
भीखंम को सरकार से मिलना था। मगर कैसे।
बस में बैठा। शहर पहुंचा, कोई ठिकाना नहीं। सेक्रेटेरियट तक आया। बड़ा सा फाटक। सिपाहिओं की भीड़। खड़ा तक ना होने देते थे।
उन फौजियों और इन सिपाहियों में कितना अंतर था। वे धरती मां की सेवा में जुटे थे और ये?
भीखम को सरकार का दर्शन न हो सका। तीन बरस बीत गये। अब तक तो बरगद गाछ के नीचे बैठा संत सा दिखता है।
नहीं चाहिए मुआवजा। अब भी तिरंगा फहराता है। अपने साथियों को अपनी अंतिम इच्छा बता रखा है। कहता है
‘‘जो सरहद पर सेवा करते हैं तिरंगा ओढ़कर अंतिम यात्रा करते हैं।’’
‘‘वह मर जाए तो उसकी पोटली में रखा तिरंगा उसे ओढ़ाया जाए ’’
‘‘और धरती की माटी का लेप लगाया जाए’’
उस रात काफी ओला गिरा। भीखम सोया तो सोया ही रह गया।
पलटू, बिगन, बीरू सारे उसके साथी बरगद पर माथा पटक पटक कर रोये। दूर खड़े सिपाही देखते रहे। भीखम पर तिरंगा ओढाया गया तो वे दौड़े आये।
अरे यह क्या कर रहे हो तुम सब।
भिखमंगे पर झंड़ा ड़ालते हो। हटाओ जल्दी।
‘‘नहीं हटेगा तिरंगा, सारे साथी एक साथ चिल्लाए’’
‘‘क्यों नहीं हटेगा’’
यह सरहद का सिपाही है।
उसकी पोटली में से एक कागज निकालकर सिपाही जी को थमा दिया
-लिखा था, भीखम सिंह, पिता माधो सिंह, सिख बटालियन में सेवा करते अपना पैर गवां बैठा। इन्हें उचित सरकारी मुआवजा प्रदान किया जाए।
भारत सरकार की मुहर लगी थी।
सेक्रेटेरियट के फाटक पर लाल बत्ती वाली गाड़ी खड़ी थी। काला शीशा। थोड़ा सा उतरा हुआ। तमाशा का जायका लेने को एक जोड़ी आंखें, उधर ही गड़ी थी।