दिल्ली का हाल बेहाल है। मौसम के बदले तेवर ने विकास की सारी अवधारणाओं को ध्वस्त कर रख दिया है। देश की राजधानी का यह हाल यह सोचने पर मजबूर करता है कि आधुनिक विकास की होड़ में हम प्रकृति को कितना नजरअंदाज करते चले आये हैं। बारिश होगी और कभी कभार अत्यधिक बारिश भी होगी।
पर विकसित इलाकों में जल निकासी कैसे हो, यह सोचना तो हमारा काम है। सिर्फ दिल्ली ही नहीं पूरे देश में विकास की सोच में इस विषय की अनदेखी हुई है। आधुनिक शहर बेंगलुरु का भी यही हाल है, जहां आये दिन बाढ़ की वजह से हादसे भी हो रहे हैं। दरअसल मॉनसून आते ही देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ की तबाही नजर आने लगती है।
असम, ओडिशा और हिमाचल प्रदेश के कई इलाके पहले ही बाढ़ के शिकार हैं। मॉनसून का मौसम आगे बढ़ने के साथ ही देश के अलग-अलग इलाकों से ऐसी और खबरें आएंगी। पुराने रिकॉर्ड पर नजर डालें तो बाढ़ की घटनाएं तथा उनसे होने वाला नुकसान लगातार बढ़ रहा है।
आंशिक तौर पर ऐसा जलवायु परिवर्तन के कारण तेज बारिश की घटनाएं बढ़ने के कारण हुआ है लेकिन व्यापक तौर पर देखें तो प्रभावी बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम का अभाव भी इसकी वजह है। कुछ अन्य आपदाओं मसलन भूकंप आदि के बारे में जहां पहले से कोई पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता या बचाव के कोई उपाय नहीं किए जा सकते हैं, वहीं बाढ़ के अधिकांश मामलों में पहले से अनुमान लगाया जा सकता है।
ऐसे में नुकसान कम करने की गुंजाइश भी हमेशा रहती है। देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 12 फीसदी यानी करीब 4 करोड़ हेक्टेयर भूभाग बाढ़ की आशंका वाला क्षेत्र माना जाता है। अच्छी बात यह है कि इसमें से करीब 3.2 करोड़ हेक्टेयर यानी 80 फीसदी इलाका ऐसा है जिसे बाढ़ से काफी हद तक बचाया जा सकता है।
परंतु इस दिशा में ज्यादा कुछ नहीं किया गया है। बाढ़ के कारण लगातार बिगड़ते हालात की कई वजहें हैं और वे काफी हद तक जाहिर भी हैं। उदाहरण के लिए वनों का तेजी से कटना, नदियों के जल भराव वाले इलाके में हरियाली का कम होना तथा उनकी सहायक नदियों में गाद का जमना भी इसकी एक वजह है। गाद जमने के कारण उन नदियों की जल धारण क्षमता प्रभावित होती है। नदियों में कचरे का प्रवाह भी इस समस्या में इजाफा करता है।
इसके अलावा नदियों के तल और बाढ़ से प्रभावित होने वाली जमीन जिसे आमतौर पर बफर जोन माना जाता है, उन पर भी लोगों ने अतिक्रमण किया है। नदी प्रणालियों में जल प्रवाह का नियमन नहीं होने और बांधों के गेटों को खोलने और बंद करने में समन्वय न होने के कारण भी हालात प्रभावित होते हैं।
इसके अलावा शहरों में आने वाली बाढ़ अब एक नई समस्या बन गई है। मुंबई (2005), श्रीनगर (2014), चेन्नई (2015) और पटना (2019) इसके उदाहरण हैं। अपर्याप्त, पुराने और समुचित रखरखाव के अभाव वाली नाली व्यवस्था के अलावा खराब शहरी नियोजन, अवैध अतिक्रमण के कारण प्राकृतिक जल संरचनाओं का सिकुड़ना या गायब होना तथा नालियों में कचरा डाले जाने के कारण भी ऐसी परिस्थितियां ज्यादा निर्मित हो रही हैं।
आश्चर्य की बात है कि ऐसी कोई एक एजेंसी नहीं है जो देश भर में बाढ़ प्रबंधन का काम संभाले। संविधान में भी बाढ़ प्रबंधन को लेकर कोई प्रावधान नहीं है। मौसम विज्ञान विभाग जहां बारिश को लेकर पूर्वानुमान पेश करता है, वहीं बाढ़ के पूर्वानुमान का दायित्व केंद्रीय जल आयोग के पास है। एक बार बाढ़ आ जाने के बाद राहत और बचाव कार्य केंद्रीय और राज्य स्तरीय आपदा प्रबंधन एजेंसियां करती है। प्रभावित आबादी का पुनर्वास और क्षतिग्रस्त संरचनाओं को पुनर्निर्मित करने का काम नगर निकाय करते हैं और इस काम में उन्हें राज्य तथा केंद्र सरकार की सहायता की आवश्यकता होती है। इस संबंध में संवैधानिक प्रावधान अस्पष्ट हैं।
हालांकि पानी, सिंचाई और उससे संबंधित मसले राज्य का विषय हैं लेकिन बाढ़ प्रबंधन को संविधान की केंद्रीय सूची, राज्य सूची और अनुवर्ती सूची किसी में स्थान नहीं दिया गया है। ये अहम मुद्दे हैं जिन्हें तत्काल हल करना जरूरी है और वह भी पूरी समग्रता के साथ। ऐसा होने पर ही हम बार-बार बाढ़ आने की समस्या से निपट सकेंगे।
यह सलाह भी दी जा सकती है कि एक उच्चस्तरीय विशेषज्ञ पैनल तैयार किया जाए। मिसाल के तौर पर सन 1970 के दशक के राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के तर्ज पर। ऐसा करके बाढ़ों से जुड़ी तमाम बातों को समझकर इनसे निपटने के लिए एक व्यावहारिक कार्य योजना सुझाई जा सकती है। दरअसल नये निर्माण में कमिशनखोरी और कमाई की लालच में प्रकृति के प्रवाह को रोकने की सोच ने धीरे धीरे यह हालत पैदा कर दी है, इस सच को स्वीकार कर लेना चाहिए। वैसे परेशानी सिर्फ जल निकासी की ही नहीं है बल्कि भूमिगत जल रिचार्ज की भी है।