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चुनाव में पारदर्शिता किसकी जिम्मेदारी

ऐसा लगता है कि भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) ने चुनावों में बूथवार डाले गए वोटों की पूर्ण संख्या का खुलासा करने के बारे में अपना रुख नरम कर लिया है। पिछले साल, जब कई चरणों वाले आम चुनावों के बीच यह सवाल उठा था, तो ईसीआई ने यह रुख अपनाया था कि फॉर्म 17-सी, भाग एक, जिसमें प्रत्येक बूथ में कुल मतदाताओं की संख्या और वास्तव में मतदान करने वालों की संख्या शामिल है, का विवरण उम्मीदवार या उसके मतदान एजेंट के अलावा किसी और को बताने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है।

हाल ही में हुई सुनवाई में, इसने कहा है कि मुख्य चुनाव आयुक्त, ज्ञानेश कुमार, जिन्होंने हाल ही में पदभार संभाला है, उन संगठनों और व्यक्तियों के प्रतिनिधियों से मिलने के लिए तैयार हैं, जिन्होंने ईसीआई को अपनी वेबसाइट पर फॉर्म 17-सी की स्कैन की गई, प्रमाणित और सुपाठ्य प्रतियों को अपलोड करने का निर्देश देने की मांग की है।

मुख्य चुनाव आयुक्त के बदल जाने के बाद यह फैसला यह संकेत भी देता है कि पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ विपक्ष द्वारा लगाये गये सारे आरोप बेबुनियाद शायद नहीं थे। राजीव कुमार हाल ही में इस पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। लेकिन यह सारी प्रगति तब हो रही है जबकि सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई चल रही है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के प्रतिनिधियों से ईसीआई को एक ज्ञापन देने और एक बैठक की मांग करने को कहा है।

हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि चुनाव आयोग ने मतदाताओं की पूर्ण संख्या को सर्वत्र उपलब्ध कराने पर सहमति जताई है, लेकिन इसका परिणाम मतदान के बारे में संख्या और प्रतिशत दोनों के संदर्भ में प्रकटीकरण की प्रणाली विकसित करना हो सकता है। 2024 में, चुनाव आयोग ने अपने मतदाता मतदान ऐप के माध्यम से मतदान के बारे में कुछ विवरण जारी किए, लेकिन यह अंतहीन अटकलों का स्रोत भी बन गया क्योंकि दिए गए प्रतिशत मतदान के अंत में बताए गए प्रतिशत से असामान्य रूप से अधिक देखे गए।

मतदान के दिन घोषित मतदान और सभी बूथों से प्राप्त इनपुट के आधार पर बाद में संशोधित आंकड़ों के बीच पाँच से छह प्रतिशत अंकों के अंतर की व्यापकता को अंत में नोट किया गया। इसे आम तौर पर दूर-दराज के क्षेत्रों में स्थित बूथों सहित सभी बूथों से डेटा एकत्र करने में देरी के परिणामस्वरूप समझाया जाता है।

हालांकि, न्यायालय के समक्ष याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि फॉर्म 17-सी उपलब्ध बूथ एजेंटों द्वारा हाथ से एकत्र किया जाता है, और चुनाव अधिकारियों के लिए इसे 48 घंटों के भीतर स्कैन और अपलोड करना कोई बड़ी समस्या नहीं होगी।

राजनीतिक दलों और कार्यकर्ताओं की मुख्य शिकायत यह है कि वोटों की पूर्ण संख्या के अभाव में, लेकिन केवल मतदान प्रतिशत के साथ विसंगतियां, अंतिम परिणाम जारी होने पर पूरी प्रक्रिया के बारे में संदेह पैदा करेंगी। ईसीआई ने इस प्रश्न पर याचिकाकर्ताओं से मिलने की पेशकश करके अच्छा किया है। किसी भी चुनाव के निष्पक्ष न होने की आशंका को कम करने के लिए प्रक्रियात्मक कदम का कोई हठधर्मी विरोध नहीं हो सकता है।

यह कहना निरर्थक है कि चुनावी प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता की मांग करने वाले हर कदम का उद्देश्य इसकी अखंडता को कम करना या प्रक्रिया को खराब रोशनी में पेश करना है। पारदर्शिता बढ़ाने और ऐसा करने में लगने वाले समय को कम करने के लिए मौजूदा प्रक्रियाओं और प्रथाओं का निरंतर पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए। इसके बीच ही राहुल गांधी का सवाल अनुत्तरित है कि महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में कितने नये मतदाता जोड़े गये थे और इन मतदाताओं की संख्या और जीत के फासले का कोई संपर्क है अथवा नहीं।

ममता बनर्जी द्वारा एक ही एपिक कार्ड से कई वोटरों के नाम होने का मुद्दा सप्रमाण उठाने के बाद से चुनाव आयोग बैकफुट पर नजर आ रहा है वरना इससे पहले हर चुनाव को पाक साफ बताने की पूरी कोशिश होती रही है। दूसरी तरफ एक संवैधानिक संस्था की स्वायत्तता का महत्व समझते हुए सुप्रीम कोर्ट भी हर मुद्दे पर हस्तक्षेप करने से बचता रहा है।

वैसे मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को हटाकर केंद्र के एक मंत्री को शामिल किया जाना जाहिर तौर पर पक्षपाती फैसला है क्योंकि इस तीन सदस्यीय कमेटी में दो लोग तो केंद्र सरकार के मंत्री होंगे जो स्पष्ट तौर पर बहुमत को साबित करती है। यही हाल अन्य स्वायत्त संस्थाओं का भी है, जिनकी कारगुजारियों का पुलिंदा भी खुलने लगा है। इसलिए जिस जनता के पैसे से सारा कुछ चलता है, उसके प्रति तमाम संस्थानों की नैतिक जिम्मेदारी क्या है, यह बताने की कोई आवश्यकता भी नहीं है। पारदर्शिता ऐसी हो, जिस पर जनता को भरोसा हो, ऐसा काम होना चाहिए।

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