अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए मोर्चाबंदी तय होती जा रही है। इस मोर्चाबंदी में यूपीए के बदले अब इंडिया यानी इंडियन नेशनल डेवलपमेंट इंक्लूसिव एलायंस का जन्म हुआ है। इसमें भाजपा विरोधी 26 दल हैं। दूसरी तरफ बेंगलुरु की इसी बैठक के दौरान प्रधानमंत्री ने अपनी किलेबंदी को भी मजबूत किया है और एनडीए यानी नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस के सहयोगियों की संख्या बढ़ायी है।
एनडीए भाजपा के नेतृत्व में केन्द्र में सत्तारूढ़ गठबन्धन कहलाता है जिसमें हाल ही में नये छोटे- छोटे दलों को शामिल करके इसकी संख्या 38 तक पहुंची है जबकि इंडिया गठबन्धन में प्रमुख विपक्षी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस के अलावा अन्य सभी प्रमुख क्षेत्रीय दल हैं। मगर इन दोनों गठबन्धनों के अलावा कुछ ऐसे और क्षेत्रीय दल भी हैं जो अपने- अपने राज्यों में सत्तारूढ़ होने के बावजूद किसी भी गठबन्धन में शामिल नहीं हुए हैं।
इसमें आन्ध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस, ओडिशा की बीजू जनता दल व तेलंगाना की भारत राष्ट्रीय समिति प्रमुख हैं। इन तीनों दलों को इनका पिछला संसदीय रिकार्ड देखते हुए विपक्ष की राजनीति का हिस्सा नहीं माना जा सकता है क्योंकि संसद में इन दलों के सांसदों ने हमेशा आड़े वक्त पर मोदी सरकार का समर्थन करने को वरीयता दी है।
ये दल अपने-अपने राज्यों में विधानसभा स्तर पर मजबूत जरूर हैं मगर 2024 की सीधी लड़ाई को देखते हुए इनके हाशिये पर रहने का जरूर अन्दाजा लगाया जा सकता है क्योंकि राजनीति के तेवर देखते हुए लोकसभा चुनाव के मुद्दे सीधे भारत की जनता के साझा मुद्दे ही हो सकते हैं। इसी तरह उत्तरप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं।
जिनके बारे में यह अनुमान है कि वह अपने कारणों से सीधे सीधे भाजपा सरकार को नाराज करने की स्थिति में नहीं है। इन समीकरणों के बीच यह ध्यान देने वाली बात होगी कि लड़ाई बेशक इंडिया गठबंधन व एनडीए के बीच ही दिखाई जाये मगर असली मुकाबला अन्ततः कांग्रेस पार्टी व भाजपा के बीच ही होगा क्योंकि दोनों गठबन्धनों में केवल ये दो पार्टियां ही हैं जिन्हें विशुद्ध रूप से राष्ट्रीय पार्टी कहा जा सकता है।
मगर इन दोनों पार्टियों के साथ एक विडम्बना यह है कि जहां भाजपा विन्ध्याचल पर्वत के पार दक्षिणी भारत में बहुत कमजोर है वहीं कांग्रेस उत्तर भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में हाशिये पर खिसक चुकी है। उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं जबकि दक्षिण भारत के पांच प्रमुख राज्यों कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल व तमिलनाडु में लगभग सवा सौ सीटें हैं।
अतः 2024 की लड़ाई बहुत दिलचस्प होने जा रही है मगर एक बात तय है कि राजनैतिक दलों द्वारा इन चुनावों के प्रचार में सार्वजनिक बयानों के स्तर को चाहे जितना भी नीचे गिराया जाये परन्तु सार्वजनिक जन विमर्श अन्ततः सैद्धान्तिक मुद्दों पर ही बने रहने की उम्मीद है क्योंकि विपक्षी गठबन्धन ने जिस तरह अपना नाम इस देश के अंग्रेजी नाम इंडिया पर रखा है उससे आम मतदाता की राजनीतिज्ञों से ऊंचा व्यवहार व आचरण करने की अपेक्षाएं बढ़ जायेंगी।
सत्तारूढ़ गठबन्धन ने भी आज प्रधानमन्त्री नेतृत्व में अपनी बैठक करके साफ कर दिया है कि उसके निशाने पर विपक्षी गठबन्धन ही रहेगा जिससे वह अपना विमर्श जनता में लोकप्रिय बना सके परन्तु लोकतन्त्र में असल विमर्श वही होता है जिसे आम जनता स्वीकार करती है क्योंकि वही लोकतन्त्र की असली मालिक होती है और देश के संविधान पर उसे पूरा भरोसा होता है और वह मानती है कि भारत में जो भी होगा वह संविधान की कसौटी पर खरा उतरने वाला ही होगा।
अतः विपक्षी गठबन्धन इन चुनावों में संविधान का मुद्दा जिस तरह उठा रहा है और लोक कल्याणकारी राज की आवाजें जिस तरह जनता के बीच ही गूंज रही हैं, वह भी देखने वाली बात होगी। चुनावों के माध्यम से हर पांच वर्ष बाद देश की जनता अपने इन्हीं अधिकारों को पुनर्स्थापित करती है और एलान करती है कि भारत ऐसा देश है जिसमें आम आदमी की सत्ता में सीधी भागीदारी उसके चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से होती है।
इसीलिए लोकतन्त्र में संसद में बहुमत के आधार पर चुनी गई विशेष राजनैतिक दल की सरकार शपथ लेते ही हर उस मतदाता की सरकार भी हो जाती है जिसने बहुमत वाले राजनैतिक दल के खिलाफ चुनावों में वोट दिया होता है। यही वजह कि अल्पमत में रहने वाले विपक्षी दलों की संसद के माध्यम से सत्ता में भागीदारी करने की व्यवस्था हमारी संसदीय प्रणाली में है।
अब केंद्र सरकार के कई फैसले आम आदमी को नागवार गुजरे हैं, इस बात को स्वीकारा जाना चाहिए। लेकिन इस नाराजगी का मतदान होने तक कितना असर रहेगा, यह भी देखने वाली बात होगी। विपक्ष के लिए एकजुट हुए दलों के मतों का पूर्ण समर्थन एक बड़ी चुनौती है जबकि एनडीए अब भी नरेंद्र मोदी के आसरे ही आगे बढ़ रहा है।