यूं तो उत्तर पूर्वी भारत के चुनाव परिणामों को भाजपा की बड़ी जीत कहा जा सकता है। इसके बाद भी जो अदृश्य राजनीतिक रेखा इन परिणामों में छिपी है, उस पर सभी दलों को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।
जिस तरह दिल्ली में आम आदमी पार्टी को हल्के में लेने का नुकसान भाजपा उठा रही है, ठीक उसी तरह त्रिपुरा में टीएमपी को भी वह पराजित करने में विफल रही। यह बात इसलिए गंभीर है क्योंकि टीएमपी एक नया राजनीतिक दल है जो भाजपा के नागरिकता कानून का विरोध करके तथा एक अलग राज्य की अपनी मांग के साथ राज्य की राजनीति को बदलने का वादा करता है।
बहुमत हासिल करने के बाद भी भाजपा ने कहा है कि उसे राज्य के स्थानीय लोगों के लिए अलग राज्य की मांग के अलावा टीएमपी की किसी बात से एतराज नहीं है। पहचान की राजनीति जो त्रिपुरा में हमेशा बहुत अहम रही है, वह 2018 के चुनावों में भाजपा की जबरदस्त जीत के बाद ठंडे बस्ते में चली गई थी।
परंतु अब जबकि टीएमपी ने खुद को मुख्य विपक्षी दल के रूप में स्थापित कर लिया है तो यह मुद्दा ज्यादा समय तक दबा नहीं रहेगा। अब नागालैंड की बात करें तो एनडीपीपी में भाजपा कनिष्ठ साझेदार बनने को तैयार है।
परंतु इस बार नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) जो एक समय उसका साझेदार था और जो पूर्वोत्तर का सबसे पुराना राजनीतिक दल है, वह विपक्ष में बैठेगा। एनपीएफ अतीत में भूमिगत रहे नैशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (इसाक मुइवा) के साथ निरंतर संपर्क में रहा है और नगा समझौते को लेकर निराशा के बीच यह कहा नहीं जा सकता है कि एनपीएफ क्या भूमिका निभाएगा।
मेघालय में युवा कॉनार्ड संगमा को हकीकत से दो चार होना पड़ा। चुनाव के ठीक पहले भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ने वाले संगमा को बहुमत हासिल न होने के कारण उसी भाजपा से समर्थन मांगना पड़ सकता है जिसने उन पर आरोप लगाया था कि वह परिवारवाद करते हैं।
भाजपा ने प्रचार अभियान के दौरान यह भी कहा था कि वह नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) के नेतृत्व वाली सरकार के भ्रष्टाचार की जांच कराने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति करेगी।
अगर वह एनपीपी के साथ गठबंधन करती है तो उसे यह तय करना होगा कि वह संगमा पर भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के आरोपों की अनदेखी करने को तैयार है या नहीं। संभव है पार्टी एनपीपी को सशर्त समर्थन दे। वैसे में भाजपा पर लगने वाले वाशिंग मशीन का आरोप एक बार फिर प्रमाणित होगा।
इन चुनावों से कांग्रेस के पास भी खुश होने की कोई वजह नहीं है लेकिन यह पूरी तरह अप्रत्याशित भी नहीं है। परंतु तृणमूल कांग्रेस का कमजोर प्रदर्शन अवश्य उल्लेखनीय है। मेघालय के वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं ने टीएमसी का रुख किया लेकिन पश्चिम बंगाल के बाहर मेघालय और त्रिपुरा दोनों राज्यों में पार्टी का प्रदर्शन कमजोर रहा।
फिलहाल यह कहा जा सकता है कि गोवा और हरियाणा समेत तमाम अन्य जगहों पर तृणमूल कांग्रेस जहां भी चुनाव लड़ी है, पार्टी को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। इन चुनावों में असम के मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा निर्विवाद विजेता बनकर उभरे हैं। वह पूर्वोत्तर में भाजपा के सबसे बड़े नेता हैं।
हालांकि अभी 2024 के लोकसभा चुनावों के बारे में कोई नतीजा निकालना बहुत जल्दबाजी होगी लेकिन ये विधानसभा चुनाव इस बात की एक झलक तो देते ही हैं कि विपक्ष के सामने परिस्थितियां प्रतिकूल हैं। आने वाले महीनों में ऐसी और परीक्षाएं होंगी।
फिर भी इस बात को समझना होगा कि आदिवासी समाज के भीतर भाजपा की जो पैठ थी, वह क्या धीरे धीरे कमजोर हो रही है। पूर्वोत्तर के चुनाव आंकड़े और खासकर त्रिपुरा का चुनाव परिणाम कुछ वैसी ही कहानी बयां कर रहा है। पहाड़ी और आदिवासी यह दोनों समुदाय लगभग एक जैसी सोच के साथ समाज में चलते हैं।
दरअसल फिलहाल भाजपा के पास कद्दावर आदिवासी नेताओं की कमी भी इसकी एक प्रमुख वजह हो सकती है। आदिवासी नेताओं में एकमात्र अर्जुन मुंडा ही एकमात्र कद्दावर नेता हैं जो सभी राज्यों में सक्रिय नजर आते हैं। फिर भी श्री मुंडा ने पार्टी के आंतरिक विवादों से बचने के लिए खुद को झारखंड की राजनीति से बिल्कुल अलग कर रखा है।
इस बारे में दूसरी चर्चाएं भी हैं लेकिन अब तक न तो अर्जुन मुंडा और ना ही अमित शाह ने कुछ कहा है। लोकसभा चुनाव के लिए शुरू हो चुकी तैयारियों के बीच वोट बैंक को बचाने, बढ़ाने और दूसरे के वोट बैंक में सेंधमारी करने का खेल अब तेज होता जाएगा।
वैसे इसके बीच एक बात सामने आ रही है कि अडाणी, पेगासूस, राफेल, चीन जैसे मुद्दे शहरी बहस के केंद्र में होने के बाद भी राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के सामने अभी कोई नहीं टिक पाया है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा अब लोकप्रियता को वोट में कितना तब्दील कर पायेगी, यह देखने वाली बात होगी।