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मकाऊ प्रजाति के बंदरों पर हुआ यह प्रयोग
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शरीर का तापमान घटने से ऊर्जा खपत कम
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खास रसायन के प्रयोग से इसे अंजाम दिया गया
राष्ट्रीय खबर
रांचीः सुदूर महाकाश के किसी एक ठिकाने तक सकुशल पहुंचने की कोई तकनीक फिलहाल इंसानों के पास नहीं है। आधुनिक अंतरिक्ष विज्ञान के पास वह गति नहीं है जो इतनी दूरी पर स्थित किसी तारे अथवा सौरमंडल तक किसी इंसान को उसके जीवन काल तक पहुंचा सके। दूसरी तरफ इंसान की आयु बढ़ाने की भी कोई तकनीक उपलब्ध नहीं है। अब इस दिशा में चीन के वैज्ञानिकों की नई खोज काम आ सकती है। इसकी खोज बंदरों में की गयी है।
इस बात को समझना होगा कि वर्तमान विज्ञान की मदद से अगर हम किसी सौरजगत के खास इलाके तक की यात्रा करें तब भी कोई इंसान जीवित हालत में वहां नहीं पहुंच पायेगा। आज से करीब चालीस वर्ष पूर्व रवाना किया गया वॉयजर 1 को प्रॉक्सिमा सेंचुरी तक पहुंचने में अभी और 73 हजार साल लगेंगे। यह सूर्य के सबसे करीब का तारा है। इसकी गति अगर और बढ़ जाए तब भी यह वहां तक पहुंचने में हजारों साल का समय लेगा। इसलिए सौर जगत में किसी दूसरे स्थान तक पहुंचने के लिए यह जरूरी है कि इंसानों की यह यात्रा कई पीढ़ियों तक लगातार चलता रहे।
इसमें जो पीढ़ी यहां से रवाना होगी, उसकी कई दर्जन या सैकड़ों पीढ़ियों के बाद का इंसान उस स्थान तक पहुंच सकेगा। इसके बीच ही इंसानों की शीत निद्रा का एक तरकीब नया रास्ता हो सकता है। चीन के वैज्ञानिकों ने इसी सोच पर काम करते हुए बंदरों में मौजूद एक खास तत्व की पहचान की है, जिसकी मदद से इंसान भी शीतनिद्रा की अवस्था में अधिक आयु तक सकुशल जिंदा रहेगा।
वास्तव में इंसानों के लिए यह कृत्रिम शीतनिद्रा होगी। फिर भी इसकी मदद से इंसान का शारीरिक क्षय कम होगा। चीन के शेनझेन इंस्टिट्यूट ऑफ एडवांस्ड टेक्नोलॉजी ने चीन की साइंस एकाडमी की मदद से यह काम किया है। उन्होंने बंदरों पर इस प्रयोग को आजमाया है।
कृत्रिम तरीके से उन्हे शीतनिद्रा की अवस्था में भेजने का प्रयोग सफल रहा है। दावा किया गया है कि दिमाग के खास इलाके में न्यूरॉनों की सक्रियता से हम जागृत अवस्था में होते हैं। उसी स्थिति को अगर कृत्रिम तरीके से बदल दिया जाए तो इंसानों के लिए भी यह शीतनिद्रा संभव है। शोध दल ने मकाऊ प्रजाति के बंदरों पर भी इसे आजमाया है।
इस प्रयोग से जो नतीजे आये हैं, वे काफी उत्साहजनक है। इसके जरिए जानवरों को कठिन माहौल में भी बहुत कम ऊर्जा खर्च कर जीवित रहने में मदद मिलती है। ध्रुवीय भालू, मेढ़क और सांप जैसे कई जानवरों में यह प्राकृतिक तौर पर मौजूद होता है। इस अवस्था को बंदरों पर आजमाया गया है।
इसमें बंदरों के शरीर का तापमान आने के साथ साथ शारीरिक सक्रियता भी बहुत घट गयी थी। इस स्थिति में उम्र का असर भी स्वाभाविक तौर पर घटता चला जाता है। इस अवस्था में शरीर मानों न्यूनतम ऊर्जा के सहारे सोया रहता है और एक खास समय सीमा के बाद पूरी सक्रियता के साथ जाग सकता है। उस संस्थान के वैज्ञानिकों ने इसे कृत्रिम हाईबरनेशन कहा है। जिसमें रसायनों का प्रयोग किया गया था।
खास मकाऊ बंदरों अपने खास रसायन के प्रयोग से उनके दिमाग को इस अवस्था में पहुंचाने में सफलता हासिल की है। बताया गया है कि क्लोजापाइन एन ऑक्साइड नाम की दवा से यह अवस्था हासिल की गयी थी। चूहों की तरह बंदरों में भी दवा के प्रयोग से शरीर का तापमान घट गया था जिससे ऊर्जा की खपत बहुत कम हो गयी थी।
किसी सुदूर के तारे तक की यात्रा में इंसान की यह स्थिति उसे लंबे समय तक कठिन वातावरण को झेलने लायक भी बना देगी और उम्र का असर न्यूनतम होने की वजह से वह इतनी अधिक दूरी को जीवित अवस्था में तय कर पायेगा, ऐसा अनुमान है। वैसे इस शोध के बाद उन बंदरों के आचरण में आये बदलाव के साथ साथ शरीर की स्थिति का भी विश्लेषण किया जा रहा है।