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मूल रास्ते पर भी नजर आती है लाशें
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शवों को वहां से निकालना आसान नहीं
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खर्च की वजह से भी लोग छोड़ देते हैं
राष्ट्रीय खबर
नईदिल्लीः माउंट एवरेस्ट दुनिया की सबसे ऊंची चोटी है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त इस चोटी पर जाना पहले बहुत कठिन काम समझा जाता था। पर्वतारोहण की तकनीक और सुविधाओं के विकसित होने का नतीजा है कि अब अनेक पर्यटक यहां नियमित तौर पर आते हैं। इसी क्रम में इस चोटी के रास्ते में जरा सी असावधानी मौत का कारण बनती है।
अनेक दुर्घटनाओं और बर्फ गिरने की घटनाओं ने अनेक पर्वतारोहियों की बर्फ के पहाड़ के नीचे दबा रखा है। आंकड़े बताते हैं कि 19वीं सदी से अब तक घोषित तौर पर वहां तीन सौ लोग मारे गये हैं। इसके अलावा समय समय पर हिमालय के आस पास विमान और हेलीकॉप्टर दुर्घटनाओं में भी लोग मारे गये हैं। इनमें से अधिकांश लाशों का पहले तो पता नहीं चल पाता है।
उन्हें मरा हुआ समझ लिया जाता है। बाद में कभी अगर लाशें बरामद हुई भी तो उन्हें वापस लाने की परेशानी की वजह से यह शव यही पड़े रहते हैं। दरअसल लाशों को नीचे लाने की खर्च भी बहुत अधिक है। इसलिए पहचान हो चुके अनेक लाशों को वहीं खास निशान के साथ छोड़ दिया गया है। इससे आने जाने वालों को पता चल जाता है कि वहां पर किसी का शव दफन है।
वह कौन है, वह इस निशान में उल्लेखित होता है। पर्वतारोहियों की संख्या बढ़ने की वजह से इस हिमालय पर प्लास्टिक का प्रदूषण भी बहुत बढ़ा है। कई स्थानों पर इस खतरे को देखते हुए अब प्लास्टिक पर प्रतिबंध भी लगा दिया गया है। भारत और नेपाल के प्रशिक्षित पर्वतारोही खास समय पर वहां एकत्रित होने वाले कचड़ों को एकत्रित करते हैं।
उन्हें हेलीकॉप्टर के जरिए वहां से हटाया जाता है। इसके ठीक विपरीत लाशों को हटाना कोई आसान काम नहीं है। इस वजह से शवों की तादाद वहां बढ़ती चली गयी है। इस बर्फीले पर्वत को बेहतर तरीके से जानने वाले पर्वतारोही भी यह मानते हैं कि यहां आने को सिर्फ पर्यटन समझकर ऊपर चढ़ने वालों के लिए खतरा अधिक बढ़ता जा रहा है।
चोटी पर चढ़ने के रास्ते में ही अब शव नजर आने लगते हैं। हाल के दिनों में इस अभियान के लिए निकले 11 लोग मारे गये थे। यह सभी लोग अचानक से बर्फ के खिसकने की चपेट में आकर कहीं नीचे दफन हो गये हैं। वर्ष 2015 में भी 19 लोग मारे गये थे। पिछले साल भी तीन लोगों की मौत हुई थी।
विशेषज्ञ मानते हैं कि बर्फीले इलाके में किसी की मौत होने पर उनके शवों को हटाना आसान नहीं होता और उसका खर्च भी बहुत अधिक हो जाता है। इसके अल्वा वर्ष 1984 में एक ऐसे ही शव को नीचे लाने के अभियान पर गये दो नेपाली पर्वतारोही भी मारे गये थे। दरअसल जहां यह लाशें होती हैं, वहां के बर्फ कैसा है यह पहले से पता नहीं होता। इसलिए जरा सी चूक भी जानलेवा बनती है।
इस वजह से अब वहां मरने वालों की लाशों को वही छोड़ दिया जाता है। इससे इसका प्रदूषण भी बढ़ता जा रही है जबकि एवरेस्ट अभियान पर आने वालों की संख्या में हर साल बढ़ोत्तरी हो रही है। नेपाल की लाखपा शेरपा सबसे अधिक बार हिमालय की चोटी पर पहुंचने वाले पर्वतारोही है।
उसने कहा कि वर्ष 2018 में ऊपर जाते वक्त उसने अपने रास्ते में ही सात लोगों के शव देखे थे। आठ हजार मीटर की ऊंचाई पर इतनी अधिक भीड़ से भी खतरा अधिक बढ़ जाता है। किसी एक की चूक से रास्ते में मौजूद अनेक लोग बर्फ के नीचे दब सकते हैं। उस ऊंचाई में, जहां हवा भी बहुत कम है, जरा सी चूक भीड़ के लिए भी खतरा बन जाती है।
लाशें की संख्या बढ़ते जाने का मूल विषय उसे वापस लाने का खर्च ही है। दरअसल किसी लाश को देख लेना ही काफी नहीं होता। उस शव के पास की बर्फ की हालत क्या है उसे समझकर बचाव दल को काफी संभलकर काम करना पड़ता है। अधिकांश लाशें उस स्थान पर होती हैं, जहां अधिक हलचल से फिर से बर्फ का स्खलन प्रारंभ हो सकता है।
इसी वजह से काफ संभलकर लाश को निकालना पड़ता है। लाश के लाने के लिए उसे एक स्लेज पर लादकर धीरे धीरे नीचे लाने में अधिक लोग लगते हैं। इसी वजह से दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर अब प्लास्टिक के साथ साथ लाशों का प्रदूषण भी बढ़ता जा रही है।