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लोगों को इस खतरे का पहले पता नहीं था
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प्रयोगशाला में चूहों पर भी इसकी जांच की गयी
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नर्वस सिस्टम पर इसका घातक असर पड़ना पाया गया
राष्ट्रीय खबर
रांचीः कृत्रिम मिठास अनेक पदार्थों में इस्तेमाल होता है। इसके अलावा मधुमेह के रोगी भी मिठास का स्वाद पाने के लिए इसका प्रयोग भी अपनी चाय अथवा अन्य चीजों में करते हैं। युवाओं में जो साफ्ट ड्रिंक लोकप्रिय हैं, उनमें इसका धड़ल्ले से प्रयोग होता है।
अब पता चला है कि एसपार्टेम नामक रसायन की मौजूदगी की वजह से इस कृत्रिम मिठास का उपयोग करने वाले अनजाने में ही तनाव और दुश्चिंता की परेशानियों से घिरते चले जाते हैं। इस शोध से पहले लोगों को इस बात का एहसास भी नहीं था। किसी को यह बात समझ में नहीं आयी थी कि उनके मानसिक स्वास्थ्य का इस कदर असंतुलित होने की वजह दरअसल यह कृत्रिम मिठास ही है।
इस बात को समझने के लिए वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में चूहों पर इसका प्रयोग किया है। इस प्रयोग में यह पाया गया है कि जिन चूहों ने इस कृत्रिम मिठास का स्वाद चखा, उसकी दो अगली पीढ़ियों तक इसका कुप्रभाव कायम रहा।
फ्लोरिडा स्टेट यूनिवर्सिटी के कॉलेज ऑफ मेडिसीन में इस बारे में जानकारी जुटायी है। इस शोध और चूहों पर किये गये प्रयोग के आधार पर उन्होंने पांच हजार ऐसे पदार्थों को रेखांकित किया है, जो इंसानों के अंदर यह परेशानी पैदा करते हैं। इसके मूल में वह रसायन ही है, जिसे एसपार्टेम कहा जाता है।
चूहों के अंदर इसके प्रयोग से जो मानसिक विकार पैदा हुए उसे बारिकी से देखा गया है। इसका कुछ न कुछ असर है यह तो शोधदल पहले ही समझ गया था लेकिन ऐसा कुप्रभाव चूहों की अगली दो पीढ़ियों तक रहेगी, इसका कल्पना नहीं की गयी थी।
इस शोध के बारे में नेशनल एकाडेमी ऑफ साइंसेज पत्रिका में जानकारी दी गयी है। इस शोध से जुड़े प्रदीप भिड़े, दी जिम और बेट्टी एन रोजर्स ने कहा कि दो पीढ़ियों तक ऐसा दुष्प्रभाव पहले नहीं सोचा गया था। भिडे ने इससे पहले चूहों पर निकोटिन के प्रभाव पर भी शोध किया था। जिससे पता चला था कि उसके क्या क्या कुप्रभाव पड़ते हैं।
पहले खास तौर पर मधुमेह के रोगियों को चीनी से दूर रहने की सलाह दिये जाने के बाद वर्ष 1981 में अमेरिका में ऐसे कृत्रिम मिठास युक्त पदार्थों को स्वीकृति प्रदान की गयी थी। अब जाकर यह पता चला है कि जब इस रसायन का प्रयोग होता है जो यह शरीर के अंदर जाकर एस्पार्टिक एसिड, फेनाइलनाइन और मिथानोल में तब्दील हो जाता है।
यह सभी दिमाग के नर्वस सिस्टम पर गलत असर डालते हैं। पूर्व में इसके प्रयोग की जो सीमा निर्धारित की गयी थी, उसके हिसाब से ही इस शोध को आगे बढ़ाया गया था। इस रसायन की वजह से जो मानसिक कुप्रभाव होते हैं, परीक्षण में रखे गये चूहे भी इसके कारण को नहीं जान पाये थे लेकिन उनमें यह तनाव अत्यधिक बढ़ गया था।
दरअसल इंसान के दिमाग की बनावट भी काफी हद तक ऐसी ही होती है। इसके अलावा शोध दल ने लोगों से भी बात कर इसके आंकड़े एकत्रित कर लेने के बाद ही यह निष्कर्ष निकाला है। चूहों पर इसके प्रभाव को खत्म करने के लिए उन्हें भी डाइजिपॉम दिये गये थे। इससे उन्हें राहत मिली लेकिन अंदर की यह परेशानी अगली दो पीढ़ियों तक जारी रही, यह परीक्षण में साबित हो गया है। अब शोध दल इसके आणविक स्तर पर परीक्षण करने की तैयारियों मे जुटा है ताकि किसी खास रसायन के हिस्से को अलग कर लोगों को इस अनजाने खतरे से मुक्ति दिलायी जा सके।