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बाहरी इलाके से आया था कोई उल्कापिंड
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वहां के समुद्र की गहराई हजार फीट थी
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उल्कापिंड से ही वहां पानी के अंश बने
राष्ट्रीय खबर
रांचीः मंगल ग्रह को लाल ग्रह भी कहा जाता है। हमारे सौरमंडल के इस ग्रह के साथ भारतीय ज्योतिष का भी रिश्ता है। इस ग्रह के बारे में अब नई जानकारी सामने आयी है। वैसे तो इस बात के संकेत पहले ही मिल गये थे कि वहां की सतह की गहराई में जमा हुआ बर्फ किसी दूसरी अवस्था में है।
अब वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अति प्राचीन काल में उस ग्रह पर विशाल समुद्र हुआ करते थे। अनुमान यह भी है कि वहां के इस विशाल महासागर की गहराई करीब एक हजार फीट की रही होगी। बाद में उस ग्रह पर भी मौसम के बदलाव के प्रभाव की वजह से यहां का पानी गायब हो गया। वहां के विशाल समुद्रों के खत्म हो जाने के बाद भी जमीन की गहराई में बर्फ मौजूद रहा। शोधदल का अनुमान है कि आज से करीब 4.3 बिलियन वर्ष पहले यहां समुद्र मौजूद था।
एक नये शोध में इन तथ्यों की जानकारी दी गयी है। यह काम कोपेनहेगेन विश्वविद्यालय के एक दल ने किया है। इस दल के सदस्य मार्टिन बिजारो कहते हैं कि इस ग्रह पर यह पानी स्वाभाविक तौर पर नहीं था। हमारे सौर मंडल के बाहर से आये किसी उल्कापिंड के यहां गिरने की वजह से वहां पानी पैदा हुआ था।
हो सकता है कि वहां पर एक नहीं कई उल्कापिंड गिरे हों। इसकी वजह से ही वहां पानी की स्थिति पैदा हुई थी। मंगल ग्रह के कई नमूनों की वैज्ञानिक जांच के बाद ही यह निष्कर्ष निकाला गया है। जिसमें वैज्ञानिकों ने पाया है कि इन नमूनों में क्रोमियम के आईसोटोप के अंश है।
इसलिए हो सकता है कि पानी की मौजूदगी वाला कोई उल्कापिंड यहां की सतह से टकराने के बाद ही वहां नये किस्म की रासायनिक प्रतिक्रिया हुई थी। इसके बाद ही वहां विशाल समुद्र बन गया था। समुद्र की गहराई का अनुमान भी इसी उल्कापिंड की टक्कर से बनी गहरे इलाके के आधार पर निकाला गया है।
वैसे इस शोध में कोपेनहेगन के दल के साथ यूनिवर्सिटी डी पेरिस, ईटीएच ज्यूरिख और यूनिवर्सिटी ऑफ बर्न के लोगों ने भी काम किया है। वैज्ञानिक पत्रिका साइंस एडवांसेस में इस बारे में एक लेख प्रकाशित किया गया है। पहले यह माना गया था कि इस ग्रह पर पानी दरअसल जमीन के नीचे से रिसने वाले गैसों की वजह से हुआ था।
बाहर के तापमान में वे ठंडा होते गये। लेकिन अब इस सिद्धांत के बदले दूसरा सिद्धांत स्थापित किया गया है। दोनों का ही निष्कर्ष यह है कि प्राचीन काल में इस लाल ग्रह पर जल की मौजूदगी थी और अभी भी सतह के काफी नीचे बर्फ मौजूद है। यह शोध इसलिए भी चल रहा है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वहां पानी किसी भी अवस्था में होने की हालत में वहां भी इंसानों को बसाया जा सके। अब शोध दल यह समझने की कोशिश कर रहा है कि अगर यहां पर कोई उल्कापिंड गिरा था तो वह बाहरी सौर जगत के किस हिस्से से आया था।
उल्कापिंड के छोटे नमूनों की जांच से क्रोमियम 54 से यह सुनिश्चित हुआ है कि वह मंगल ग्रह का अपना हिस्सा नहीं है। यानी यह अंश किसी दूसरे उल्कापिंड का भाग है। लिहाजा यह माना जा रहा है कि सौर जगत में इस तरह मंडराते उल्कापिंडों में से दस प्रतिशत ऐसे हैं जिनमें पानी किसी न किसी रूप में मौजूद हो सकता है।
उल्कापिंडों में अगर दस प्रतिशत भी पानी रहा हो तो वह मंगल में बने समुद्र के हिसाब से कितना बड़ा रहा होगा, उसकी गणना की जा रही है। क्योंकि वहां उस उल्कापिंड की टक्कर से ही करीब एक हजार फीट का गड्डा हुआ था, जो समुद्र मे तब्दील हो गया था।