कश्मीर साढ़े सात दशक से अधिक समय से आतंकवाद से ग्रस्त है, लेकिन यह अभी भी अज्ञात था कि इस बार का आतंकवादी हमला पिछले सभी अनुभवों को पार कर जाएगा – भयावहता में, उन्मादी हिंसा में। इस बार इस्लामी आतंकवादियों ने, जिनकी जिम्मेदारी लश्कर-ए-तैयबा के छद्म संगठन द रेजिस्टेंस फोर्स (टीआरएफ) ने ली है, पहलगाम के निकट बैसरन घाटी में अमानवीयता की अभूतपूर्व मिसाल कायम की है।
जो तस्वीरें और खबरें सामने आई हैं, उन्होंने देश भर के लोगों की रातों की नींद उड़ा दी है। पर्यटकों पर इस तरह से सीधे गोलीबारी पहले कभी नहीं हुई है, न ही ऐसा उनके धर्म को जानते हुए चुनिंदा तरीके से किया गया है।
उग्रवादियों ने स्वयं यह दावा करने की कोशिश की है कि यह धार्मिक उत्पीड़न है। उस आत्म-धोखा देने वाली धार्मिकता को धिक्कार है: दुनिया का कोई भी धर्म निर्दोष साधारण लोगों के जीवन का विनाश नहीं चाह सकता। हकीकत में यह आतंकवाद शुरू से ही राजनीतिक है, इसलिए वे किसी को मार सकते हैं और अपने पड़ोसी से कह सकते हैं कि देश के प्रधानमंत्री को इसकी सूचना दे दो।
धिक्कार है उस राजनीतिक चेतना पर जो इतने क्रूर तरीके से संदेश भेजना चाहती है। लेकिन इसके बीच जो असली सवाल है वह कश्मीर के पर्यटन उद्योग को हुए नुकसान का है।
वहां के पर्यटक लौट चुके हैं और गर्मी के मौसम में अब लोग हिमाचल प्रदेश अथवा उत्तराखंड जाने की तैयारी कर रहे हैं। इसलिए कश्मीर के इस पर्यटन उद्योग को नुकसान कर किसे लाभ होगा, इस सवाल का उत्तर तलाशा जाना चाहिए।
इस आतंकवाद को विभिन्न कारणों से राजनीतिक रूप में देखा जाना चाहिए। कश्मीर से आने वाली खबरों पर नजर रखने वाले कई लोग अनुमान लगा रहे थे कि बड़े पैमाने पर आतंकवादी हमला हो सकता है। पिछले एक साल में छोटे-मोटे हमले हुए हैं।
घाटी के लोगों का गुस्सा फूट रहा था। अतीत में बार-बार यह देखा गया है कि घाटी के आम लोग आतंकवादी गतिविधियों में भाग नहीं लेते हैं, लेकिन आतंकवादी उनके गुस्से का फायदा उठाकर हमले करते हैं। अनुच्छेद 370 को निरस्त करने का तीव्र दमनकारी इतिहास, केंद्रीय शासन के तहत कश्मीरी पहचान का अपमान, बाहरी लोगों द्वारा भूमि की खरीद, और स्थानीय निवासियों के प्रति अवमानना और अनादर का निरंतर अभ्यास – ये सभी गुस्से के विस्फोट के कारण थे।
लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह यह दावा करते हुए अपनी पीठ थपथपाने में व्यस्त हैं कि घाटी में स्थिति कितनी सामान्य और सुचारू रूप से चल रही है।
इसमें बहुत बड़ी प्रशासनिक त्रुटि हुई। यदि कश्मीर में शांतिपूर्ण स्थिति उनकी उपलब्धि है, तो संकट आने पर इसे दूसरों की विफलता क्यों कहा जाना चाहिए? कुछ आतंकवादी सैनिकों के वेश में आये और पर्यटकों पर इतना बड़ा हमला कर दिया – क्या यह देश की खुफिया एजेंसी की चौंकाने वाली विफलता नहीं है?
गृह मंत्री के अलावा यह जिम्मेदारी कौन लेगा? हालाँकि, देश का दुर्भाग्य यह है कि विपक्षी नेतृत्व इस मांग को उठाने के लिए फिलहाल अनुपस्थित है। एक ओर सत्तारूढ़ दल की अल्पसंख्यक विरोधी राजनीति के प्रगतिशील हमलों और दूसरी ओर विपक्ष की दिशाहीन राजनीति के बीच इस उग्रवादी हमले ने पूरे देश में सांप्रदायिक अविश्वास की एक नई लहर पैदा कर दी। मीडिया और सोशल मीडिया में नफरत और द्वेष का विस्फोट दर्शाता है कि वे कितने सफल हैं।
भले ही धर्म के नाम पर आतंकवाद हो रहा है, लेकिन गुस्साए लोग यह भूल गए हैं कि आतंकवाद का धर्म से कोई संबंध नहीं है। उन्होंने कश्मीर मुद्दे पर, कम से कम अस्थायी तौर पर, एक और तरह का घातक अविश्वास पैदा किया। कश्मीर का अस्तित्व एक बार फिर संदेह के घेरे में आ गया। वहां के आम लोगों की आजीविका और जीवनयापन बुरी तरह प्रभावित हुआ है।
बेचारी पहाड़ी घाटियाँ आज निराशा से स्तब्ध हैं, दहशत की स्थिति में फंसी हुई हैं। साल भर की कमाई का यह मौका भी हाथ से चला जा रहा है क्योंकि देश विदेश के पर्यटन जाहिर तौर पर ऐसी भयानक परिस्थिति का सामना करना नहीं चाहते।
कश्मीर के होटल, पर्यटन केंद्रों के आस पास बने दूसरे दुकान और पर्यटकों के सहारे जीविका चलाने वाले दूसरे लोगों का क्या होगा। इस सवाल को हल्के में नहीं लिया जा सकता।
दूसरी तरफ नोटबंदी से आतंकवाद खत्म होने का दावा करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी अब अपनी तरफ से सफाई देना चाहिए। हर बार एक डाल स दूसरी डाल पर छलांग मारकर जनता का ध्यान भटकाने की कोशिशों से देश का भला नहीं होता, इतना तो हर कोई समझ रहा है। अच्छी बात यह है कि इस एक आतंकी घटना का पहली बार कश्मीर में सार्वजनिक विरोध हुआ है और वहां के लोगों को भी नफा नुकसान समझ में आ रहा है।