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चाभी वाला बन्दर

 

जलेसर पढ़ा लिखा नहीं  तो क्या हुआ ? इतना तो समझता ही है कि छल, धोखा क्या होता है। यह बात अलग है कि छले जाने के बादसमझता है कि वह छला गया।

सूखा पड़ा था। पानी बरसा ही नहीं। दरारों भरे खेतो मे गांव वाले निठल्ले बैठकर हाथ मे में खैनी मलते रहते। तम्बाकू से भूख मर जाती थी। घरों में एक बार ही चूल्हा जलता। अधनंगे बच्चे फटी धरती की दरारों मे आंख सटाकर भीतर देखने का प्रयास करते। सब कुछ अंधेरा। हरियाली वहीं से उपजेगी मगर आकाश पानी बरसाए तब तो । शहर से काफी दूर जंगल में उपेक्षित सा गांव था जलेसर का ।

एक रोज कुछ नयी बात हुई। नेताजी आए थे। ट्रक में भरकर पूरे गांव वालों को शहर ले गए । काम क्या था ? आसान सा काम । बड़े से मैदान में जमीन पर बैठकर जोर-जोर से ताली

बजाना था । रास्ते में रोककर सबको चाय पिलाया था । जिन्दगी में पहली बार जलेसर ने  दुधवाली चाय पी थी । अहा! मीठी भी खूब थी। जमकर चीनी ड़ाला होगा । सुड़क सुङ्क चाय

पीने का आनंद नहीं भूल सका था जलेसर

कसम खाई उसने। इस आनंद का कर्ज जरूर उतारेगा वह। छोटी सी डंडी में लगा छोटा सा झंडा हाथ में था। सबके हाथों में वही  झंडा था।नेताजी ने ही दिया था। वह बार-बार माथे से उस झंडे को लगात-मानो भगवानजी के प्रसाद का दोना हो। दूध वाली चाय तो इसी  झंडे  की बदौलत नसीब हुई थी। करजा तो उतारना ही होगा । कैसे ? इसी नेताजी को अपना भोट देगा। बस इसी को।

नेताजी के साथ गांव के सरपंच भी आए थे। साथ में और भी थे जिन्हें कभी नहीं गांव में। उसकी टूटी मड़ई के सामने सरपंच बाबू जोर-जोर से चीख रहे थे।

भगवान देख रे जलेसर। नेताजी  भगवान बनकर तुमलोगों के साथ दरवाजे पर आए हैं।

फिर बोले- बस इनका झंडा दिमाग में छाप लो। तीन ठो रंग है।

दिखता है न! देख रहा है तुम। बीच में हाथ छपा है। समझ लो भगवानजी का हाथ है।

जलेसर हाथ जोड़े खड़ा। एक टक नेताजी का झंडा निहार रहा था। भक्तिभाव से ।

ई झंडा तो बढ़िया लगता है। असीस दे रहा है। जैसे भगवानजी का हाथ।

ठीक समझा रे तू । समझो की ई पंजा पर बटन  टीप दिया तो जिंदगी बदल जाएगा।

क्या क्या बदलेगा बाबू? I

चिंगारी सी चमक उठी थी जलेसर की बुझी सी आंखों में

“अरे सब कुछ बदल जाएगा- सब अच्छा हो जाएगा

नेताजी के साथ खड़ा एक चौकोर मोटा सा आदमी लगभग चीखने लगा

—”दो रूपैया किलो चावल मिलेगा। चिन्नी भी मिलेगा। ढिबरी के लिए किरासन तेल!

तुम सब झोपड़ी पक्का बन जाएगा

जाड़ा आते आते कम्बल भी बरसाकर जाएंगे अपने नेताजी।

जलेसर की आंखें धीरे-धीरे फैलने लगीं। साथ खड़ी जोरू का आंचल माथे पर से सरकने लगा था । पूरा माथा ही हिल गया था उसका तो ।

बाप रे इतना चीज बदलेगा?  तब तो सचमुच करामाती है  ई पंजा छाप वाला झंडा

जलेसर को अपने बापू की याद आ गई।

उसके बाप की अंतड़ियाँ सूख गई थी। और, चल बसा था वह।

मृत शरीर में भी पेट वाला हिस्सा ऐसा दबा था मानो आग सुलगाने को गढ़ढा ख़ुदा हो ।

शहर के बड़े मैदान में जलेसर के गांव भर के लोग इकट्ठे चुकु- मुकु हो बैठे थे । बेबसी के बैठने तरीका शायद यही होता है। दोनों घुटनों से पेट दबा  रहता है। भूख भी दबी रहती है। नेताजी के संगी लोग चेताकर गए थे। हर दस मिनट मे तड़-तड़ ताली पीटना है। नजर रहेगी कौन नहीं बजाता ताली। पचीस रुपैया ऐसे ही नहीं मिलने वाला ।

हिसाब लगा रहा था जलेसर। उसकी जोरू का पचीस रूपैया – बड़का बेटा का पच्चीस- और उसका पचीस ! कुल मिलाकर  पचहत्तर रुपये की कमाई। ताली पीटने मे क्या जाता है ? ऐसे तो पेट पीटता ही रहता है । आज थपड़ी ही सही ।

दूध वाली चाय का स्वाद अब भी जीभ पर है। सब असीरबाद है। झंडा का कमाल है । पंजा दिखता बड़ा तगड़ा है । जादू तो चलेगा ही। झंडे को कलेजे से लगाए बैठा है जलेसर । किरपा हो जाए झंडे की। पेट की आग बुझती रहे। फिर तो इसी को बड़का बांस में बांधकर गाड़ देगा वह अपनी झोपडी के सामने। उसकी जोरू के लिए यही होगा तुलसी चौरा। रोज जल ढारेगा जलेसर ।

 

 

सूरज चढ़ने लगा। दस बजे से ही सब बैठे हैं। हलक सूख रही है। नजरें मंच पर टिकी हैं। कब बिराजेंगे नेता भगवान । न जाने कौन कथा बांचेंगे। उसे तो थपड़ी पीटना है। सिपाही जी से पूछा तो डपट दिया ।

“भगवान जल्दी दर्शन नहीं देते । बैठे रहो चुपचाप । दो घंटे बैठने की बात थी। यहाँ तो चार घंटे से बैठा है पूरा गांव । केवल उसी का गांव नहीं।

न जाने और किन किन गांवों के लोगों को ट्रकों में भर भर कर लाए है ये लोग। सबका एक ही काम है। ताली पीटना । सबके हाथ में पंजा छाप झंड़ा ।

केवल गंजी पहना है जलेसर ने झंझरा जैसी। उसकी घरवाली के माथे पर साड़ी का अँचरा है। हालांकि ठीक माथे पर बीच में फटा है।

गमछा खोलकर आधा खुद और आधा बेटे के माथे पर ओढ़ा देता है जलेसर । मन ऊब रहा। लेकिन पंजा वाले झंडे  को देखते उम्मीद जगती है।

जलेसर हाथ में खैनी मल रहा था । पास खड़ा पुलिस वाला सिपाही निकट सरक आया। समझ गया जलेसर। खैनी चाहिये सिपाही जी को ।

” अच्छा सिपाही बाबू ई नेताजी कब तक आवेंगे ”

“जब मन करेगा । पूरा मैदनवाँ भरेगा तब । काहे घबड़ाते हो”

“धूप बढ़ रहा न – गला सूखता है – अगल बगल कंही नल होता…… ”

“थोड़ा सा धूप सह लो। अब जिंदगी बदलेगा । सुना नहीं क्या। दो रुपया किलो चावल…. ”

सुनकर ऐसा लगा जलेसर को जैसे सामने भर थारी भात रखा हो ”

सिपाहीजी हँस रहे थे। “तुमलोगों को भी भूख प्यास लगता है का जी”

“भूख नही –भूकंप मचता है पेट में । इसी भूकम्प में में मेरा बापू दब गया था ।”

बेटे पर नजर पड़ी।  धूप से मुँह लाल हो गया था । माई की गोदी में पूरा माथा घुसारक बचने की कोशिश कर रहा था। हाथ में अभी भी पंजा का जादू थामे था मुट्ठी कसकर ।

मुँह में निचला होठ खींचकर खैनी दबाते सिपाही ने कहा- “कष्ट सहोगे तब तो उद्धार होगा।”

झेलते झेलते तो इतनी उमर बीत गई। अब तक तो उद्धार न हुआ ।

जलेसर सोच रहा -दो रूपैया किलो चावल मिले तो मान लेगा झंडा सच्चा है । झंडा में ताकत है। उसे अपने दादा की याद आई।

वह बिरसा भगवान की कथा सुनाते थे। गांधी बाबा की कथा सुनाते थे। कहते थे गांधी बाबा वाला झंडा में ही ताकत है।

जो इसकी शपथ ले उसी का विश्वास करना। दूसरे सब झंडे नकली ।

लेकिन गांधी बाबा बाला झंडा मिले कहाँ।  उसके गांव में तो कभी फहरा ही नहीं। सरपंच बाबू पता नहीं कहाँ चले जाते थे झंडा फहराने वाले दिन ।

वापस आते थे एक टोकरी बुंदिया लेकर। भर महीना खाता था उनका परिवार। खैर पंजा वाला ई झंडा भी ठीक ही रहेगा -अगर दो रूपया किलो चावल दिलाए तो।

भरोसा कर लेगा इसपर । एक बटन क्या  पांच पांच बटन एक ही बार में टीप देगा । नमक भात मिल जाए तो वह पूजा करे इसकी।

जलेसर के नेता भगवानजी पधारे। गंजी धोती  सब पसीना से तर हो गया तब पधारे। माइक पर चिचियाने लगे ।मैदान भरा देखकर उमंग से लोटपोट थे। जलेसर ने पूछा-

 

” अच्छा सिपाहीजी! ई नेता भगवानजी का बोली तो कुच्छो समझ में नहीं आता है ”

” अरे मूरख, समझने वाला लोग नेताजी का भाषण थोड़े न सुनता है। तुमलोग को तो चाभीवाला बंदर बनाकर यँहा लाए है ”

“चाभीवाला बन्दर ? ऊ कैसे ? ”

“जब कहेंगे थपड़ी बजाना है।” तब तुम लोग थपड़ी बजाना ।”

” लेकिन हमारे जंगल मे तो बिना चाभी के बंदर कूद फांद करता है।”

“अरे बुद्धू ऊ तो जिन्दा होता हैं न।”

” तो हमलोग तो इन्सान है ।”

अब चुप रहो – ढेर बकबकाओ मत ”

जाने कितनी बार ताली पीटी जलेसर ने याद नहीं। हथेलियाँ लहरने लगीं। कोई बात नही हाथ में। रुपया मिलते ही गायब हो जाएगा। अब तो पेट भी लहरने लगा था जलेसर का । क्या ई असीरवादी वाला झंडा पेट की लहर खत्म करेगा ? अगर सचमुच दो रूपैया किलो चावल दिला दिया तो नेताजी साक्षात देवता। उसने पंजाछाप झंडा अपने माथे पर रख लिया ।

लेकिन फिर दादा का कहा दिमाग में घूम गया। केवल गांधीजी का झंडा ही सच्चा। उसमें चक्र बना है। चक्र क्या सुदर्शन चक्र है। अत्याचारी काँपते है उससे। जलेसर ने तो उस झंडे को देखा ही नहीं। नेताजी मंच से उतरने लगे। पूरी ताकत झोककर आखिरी बार ताली पीटा जलेसर ने। वह नेताजी की लकदक पोशाक देख रहा था । फूलमालाओं से गर्दन ढँकी। सचमुच भगवानजी ही तो लग रहे थे। उनका असीरवादी पंजा दो रूपैया किलो चावल दे दे बस ।

दिन भर उपवास हो गया नेताजी के नाम पर। ब्रत का फल मिले तो ठीक । सब ट्रक में लद गए। गांव पहुंचते-पहुंचते रात हो गई। अगले दिन दो रूपैया चावल मिलेगा कहकर नेताजी के साथी संगी रफूचक्कर हो गए सचमुच जलेसर चाभी वाला बंदर बनकर रह गया।

चार महीने बीत गए । न रूपया मिला न चावल । उसकी गंजी के सुराख फट फट कर बड़े सुराखों में तब्दील हो गए । असीस वाला झंडा अब भी उसने देवता की तस्वीर के साथ लगा रखा है।

खबर मिली है जलेसर को। शहर के उसी मैदान में बापू वाला झंडा फहरेगा।

मुश्किल से दो ही बार लगता है वह झंडा । इस बार वह जाएगा

झंडा देखने। दादा ने कहा था –

“जो चक्रवाले झंडे की शपथ ले वही सच्चा । गोरे अंग्रेज इसी से डरकर भाग गए “।

पहुँच गया जलेसर झंडा फहरा। वहाँ बहुत सारे नेता भगवान देखे उसने । दो घंटे के बाद मैदान खाली । मंच पर चढ़ गया जलेसर। ठीक झंडे के नीचे खड़ा। लहराते झंडे के रंग आंखों में स्थिर नहीं होते। कभी और केसरिया कभी हरे रंग की लहर । सुदर्शन चक्र कहाँ है। नही

देख पा रहा। अकेला वह और अकेला झंड़ा । मानों सब जबरजस्ती झंड़े उड़ते रहने को छोड़ गए हों।

सोच रहा वह – इस सच्चे झंडे को अब तक शायद किसी ने नहीं पूजा। इसकी शपथ नहीं ली किसी ने। तभी तो देर सारे दैत्य अट्टहास करते हैं। भूख का दैत्य- गरीबी का ‘दैत्य’ । बीमारी का दैत्य । छल कपट बेइमानी का दैत्य । छल का दैत्य तो सबसे डरावना । नेता भगवान भी तो छल कर गए । दो रुपया चावल तो मिला ही नहीं।

झंडे की रस्सी को माथे से लगाया जलेसर ने।

कसम ली –

“हे गांधीबाबा तुम्हारे इस झंडे को छोड़ और किसी झंडा को नहीं पूजेंगे”

ऐसा ही एक झंडा खरीदकर ले जाएगा जलेसर । अपनी झोपड़ी के सामने लगाएगा। उसकी घरवाली जल फूल चढ़ाएगी। गांव के लोग पहचान जाएंगे असली झंडे को । भात दाल देने वाला  झंडा ही चाहिये ।

 

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