चुनावी मौसम में एक तरफ शीतकाल का ठंड तो दूसरी तरफ राजनीतिक गर्मी। गजब का कॉंबिनेशन बना है। ऊपर से लोकसभा का सत्र भी प्रारंभ होने वाला है। पांच राज्यों के चुनाव परिणामों का एलान होने के बाद नाव पर गाड़ी या गाड़ी पर नाव की स्थिति स्पष्ट होगी। फिलहाल तो हर कोई अपनी जीत का दावा कर रहा है।
अंदरखाने में पब्लिक क्या गुल खिला रही है, यह कौन जाने। इसी वजह से एक आकलन दूसरे को गलत साबित करता जा रहा है। बाकी सब तो ठीक था क्योंकि चुनावी प्रचार में एक दूसरे को नीचा दिखाना अपनी जीत की दावेदारी मजबूत करने की चाल है। सिर्फ इस बार एक पनौती शब्द ने पूरे समीकरणों को ही बदलकर रख दिया।
अहमदाबाद के क्रिकेट मैच में नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में भारतीय टीम की हार पर राहुल गांधी ने चुनावी सभा में पनौती शब्द का उल्लेख किया। बस यह शब्द नहीं एटम बम जैसा फटा और गोला ठीक निशाने पर जा गिरा। भाजपा की आलोचना, चुनाव आयोग की नोटिस के बीच इस शब्द को नरेंद्र मोदी से जोड़कर सोशल मीडिया ने मनोरंजन का एक नया रास्ता बना दिया। राजनीतिक तौर पर इसी पनौती पर जर्सी गाय, बछड़ा, गर्लफ्रेंड से लेकर मुर्खों का सरदार तक बात आ पहुंची।
चुनाव के रेवड़ी वितरण समारोह के बीच यह एक शब्द चर्चा का विषय बन गया, इसे लेकर भाजपा का नाराज होना जायज है क्योंकि उसे भी यह एहसास हो रहा है कि जनता का मिजाज कुछ बदला बदला सा नजर आता है।
इसी बात पर फिल्म अनाड़ी का यह गीत याद आ रहा है। इस गीत को लिखा था शैलेंद्र ने और संगीत में ढाला था शंकर जयकिशन ने। इसे लता मंगेशकर और मुकेश कुमार ने अपना स्वर दिया था। गीत के बोल इस तरह हैं
वो चाँद खिला, वो तारे हँसे
ये रात अजब मतवाली है
समझने वाले समझ गये हैं
न समझे, न समझे वो अनाड़ी हैं
वो चाँद खिला …
चाँदी सी चमकती राहें
वो देखो झूम झूम के बुलायें
किरणों ने पसारी बाहें
कि अरमाँ नाच नाच लहराये
बाजे दिल के तार, गाये ये बहार
उभरे है प्यार जीवन में
वो चाँद खिला …
किरणों ने चुनरिया तानी
बहारें किस पे आज हैं दीवानी
चन्दा की चाल मसतानी
है पागल जिसपे रात की रानी
तारों का जाल, ले ले दिल निकाल
पूछो न हाल मेरे दिल का
वो चाँद खिला …
अब कहां चांद खिल रहा है और कहां तारे हंस रहे हैं, यह समझने वाली बात है। अलबत्ता झूठ स्थायी नहीं होता, यह बात तो अब समझ में आने लगी है। लोगों ने पनौती की चर्चा के बाद आलू से सोना निकालने का भी पोस्टमार्टम कर दिया। मजेदार स्थिति यह है कि मेन स्ट्रीम मीडिया जिन मुद्दों को दबा रही है, सोशल मीडिया में उन्हीं मुद्दों को अधिक चर्चा हो रही है।
जनता का ध्यान टीवी चैनलों के मुकाबले सोशल मीडिया में प्रसारित होने की सूचनाओं पर अधिक होने की मजबूरी टीवी चैनलों के सामने है। वे भी अब यूट्यूब और फेसबुक पर अपनी बातों को प्रसारित कर रहे हैं। एक प्रमुख पत्रकार ने शायद ठीक ही आकलन किया है कि हालत कुछ ऐसी हो गयी है कि टीवी चैनलों के गोदी पत्रकारों के मुकाबले उनके मालिक अधिक डरे हुए हैं।
इस राज में तो खूब मलाई खायी है और अगर सरकार बदल गयी तो कौन कौन जेल जाएगा, यह चिंता अभी से सताने लगी है। वैसे सत्ता के करीब रहने वाले भी कभी अकेले नहीं होते। यह गिरोहबंदी है। निजाम बदलेगा तो उसके करीब का चेहरा भर बदल जाएगा बाकी गिरोह वही रहेगा और उसके गिरहकट भी वही रहेंगे। इसे कहीं भी देखा जा सकता है।
लोकसभा का सत्र प्रारंभ होने के पहले ही ममता की छांव में महुआ का क्या होगा, इस पर चर्चा गर्म है। लोकसभा की सदस्यता जाने का अब कोई अर्थ नहीं रह गया है। इसलिए ममता की छांव में आने के बाद महुआ से तेल निकलेगा या देसी शराब बनेगा, यह देखने वाली बात होगी। दोनों के उपयोग अलग अलग होते हैं, यह जनता जानती है।
दूसरी तरफ चुनावी बॉंड का सवाल भी सुप्रीम कोर्ट में खड़ा है। खबर है कि चुनाव आयोग को सभी दलों ने अपने चंदे का हिसाब दे दिया है। अब चुनावी बॉंड के बारे में अगर कोई दल यह कह दे कि उसे यह चंदा किसने दिया, याद नहीं तो आगे क्या होगा।
क्या सुप्रीम कोर्ट भारतीय स्टेट बैंक से इसकी जानकारी लेगी क्योंकि अधिकृत तौर पर सिर्फ उसे ही इसका जानकारी होती है कि चुनावी बॉंड किसे दिया गया था। वहां से जो कुछ भी निकलेगा, वह बहुत कुछ तय कर देगा। चलते चलते अब ईडी की झारखंड की गतिविधियों पर भी चर्चा कर लें। अचानक से ईडी की चुप्पी का राजनीतिक अर्थ क्या निकाला जाए, यह बाजार में चर्चा का विषय है। कहीं कोई सेटिंग हैं तो यह बात भी खुलकर सामने आये।