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जेपीसी से आखिर सरकार भयभीत क्यों हैं

भारत के संसदीय इतिहास में फिर से हंगामा का दौर चल रहा है। मजेदार बात यह है कि संसद ना चले के इस खेल में विपक्ष के साथ साथ सत्तापक्ष भी शामिल है। विपक्ष अडाणी मुद्दे पर जेपीसी की जांच की मांग कर रही है तो दूसरी तरफ भाजपा राहुल गांधी के लंदन वाले बयान पर माफी को लेकर नारेबाजी करती है।

स्पष्ट होता जा रहा है कि दरअसल अडाणी कांड पर चर्चा ना हो, यह सरकार की चाल है। आखिर जेपीसी गठन की मांग यूं ही नहीं हो रही है। अब तक जो मुद्दे सामने आये हैं, उससे तो यही संकेत मिलता है कि कहीं न कहीं दाल में कुछ काला है। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार के विरोध के बाद भी मामले की जांच का निर्देश देकर सरकार को वैसे ही परेशानी में डाल रखा है।

सत्तापक्ष को इस बात की जानकारी है कि जेपीसी का गठन कोई नई बात नहीं है। पहले भी विपक्ष की मांग पर इसका गठन हो चुका है। इससे पहले भी बोफोर्स तोप घोटाला (1987), हर्षद मेहता स्कैम (1992), केतन पारीख स्कैम( 2001), शीतल पेय में कीटनाशक (2003), टू जी स्कैम (2011), वीवीआईपी हेलीकॉप्टर घोटाला (2013), भूमि अधिग्रहण कानून (2015) और एनआरसी (2016) में संयुक्त संसदीय समितियों का गठन हो चुका है।

व्यक्तिगत डेटा सुरक्षा बिल के लिए भी 2019 में ऐसी कमेटी बनायी गयी थी। इस समिति के गठन का अर्थ होता है कि यह समिति किसी से भी कोई भी दस्तावेज अथवा मौखिक सूचना मांगने का अधिकार रखती है।

दरअसल इस समिति का गठन होने के बाद उसके सामने हाजिर होने से इंकार करने वाले पर विशेषाधिकार के हनन का मामला भी बन जाता है। इसमें आम तौर पर सूचनाओँ को गोपनीय रखा जाता है लेकिन पूर्व में शेयर बाजार के मामलों में विचार के बाद यह तय किया गया था कि इस समिति के अध्यक्ष जनता के समक्ष पारदर्शिता बनाये रखने के लिए समय समय पर प्रेस के जरिए घटनाक्रमों की जानकारी देंगे।

आम तौर पर केंद्रीय मंत्रियों को इसमें नहीं बुलाया जाता लेकिन अगर जरूरी हो तो स्पीकर की अनुमति से ऐसा भी किया जा सकता है। इसमें सिर्फ एक ही शर्त है कि राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर सरकार कोई दस्तावेज इस समिति के सामने रखने से इंकार कर सकती है।

अब अडाणी कांड के सामने आने यानी हिंडरबर्ग की रिपोर्ट आने के बाद से इस शेयर बाजार पर नजर रखने वाली सरकारी संस्था सेबी ने चुप्पी साध रखी है। एलआईसी और एसबीआई की तरफ से सिर्फ यह कहा गया है कि उनका पैसा सुरक्षित है। ऐसा बयान देने वाले यह स्पष्ट नहीं कर पाये हैं कि यह पैसा किसका है।

जाहिर सी बात है कि इन सभी एजेंसियों का काम काज जनता द्वारा जमा किये गये पैसे से ही चलता है। इन कंपनियों का मुनाफा भी जनता के पैसे के अन्यत्र इस्तेमाल से पैदा होता है। इसलिए जनता को यह जानने का नैतिक अधिकार है कि उनका पैसा अगर डूब रहा है तो उसकी जिम्मेदारी किसकी है।

बैंकों द्वारा बड़े कर्जदारों का कर्ज माफ होने के बाद भी जनता का पैसा किसकी अनुमति से लुटाया गया, यह सवाल यथावत खड़ा है। अब मुख्यधारा से अलग भी पत्रकार और सांसद सवाल उठा रहे हैं कि आखिर क्यों सेबी मॉरीशस की उन फंड कंपनियों की कुंडली नहीं निकाल सका है जिन्होंने सिर्फ, और सिर्फ अडानी समूह के शेयरों में निवेश किया।

इन कंपनियों पर कुछ सूचनाएं सार्वजनिक हो चुकी हैं जो संदिग्ध लेनदेन का संकेत दे रही हैं। हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट ने बताया कि शेल कंपनियों और भारत में सूचीबद्ध अडानी समूह की कंपनियों के बीच संदिग्ध लेनदेन हुआ। इसी रिपोर्ट में कहा है कि सेबी की दोषियों को सजा देने की जगह उन्हें बचाने में ज्यादा दिलचस्पी है।

दूसरी तरफ एक सांसद सेबी में अडाणी के एक रिश्तेदार के भी होने पर सवाल उठा चुकी हैं। केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री द्वारा साझा की गई सूची से पता चलता है कि अडानी समूह की कंपनियों में अपना ज्यादा पैसा लगाने वाले कुछ विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक निवेशक की पहचान छिपाने के लिए प्रॉक्सी का उपयोग कर रहे थे।

संसद में उक्त मंत्री के जवाब में सेबी से प्राप्त 84 पन्नों का अनुलग्नक शामिल था और इसमें उन एफपीआई के नामों का जिक्र था जिन्होंने अडानी समूह की छह सूचीबद्ध कंपनियों (अडानी टोटल गैस, अडानी पावर, अडानी पोर्ट्स और विशेष आर्थिक क्षेत्र, अडानी एंटरप्राइजेज, अडानी ग्रीन एनर्जी और अडानी ट्रांसमिशन) में निवेश किया था। ये सभी गुमनाम निवेशकों को अपारदर्शी कंपनियों और फंडों के माध्यम से अपना धन छिपाने में मदद करते थे। उनमें से कई मनी लॉन्ड्रिंग और टैक्स चोरी के लिए कुख्यात इलाकों के हैं। इससे शक होना तो वाजिब है पर सरकार अपनी करनी से जनता के मन में और संदेह पैदा कर रही है।

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