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कांग्रेस के बाद भाजपा भी क्षेत्रीय दलों से पीछे

पहले कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश से अपनी जमीन गंवाना प्रारंभ किया। उत्तरप्रदेश में इसी राजनीतिक शून्यता का असली कारण कांग्रेस में गणेश परिक्रमा करने वालों को ईनाम देने की परंपरा नहीं। इसी वजह से सपा और बसपा जैसे दलों का न सिर्फ उदय हुआ बल्कि उनकी राजनीतिक जमीन मजबूत होती चली गयी।

बाद में कई अन्य राज्य भी इसी वजह से कांग्रेस के हाथ से निकल गये और जमीनी हकीकत को भांपने से दूर कांग्रेस ने अपनी वह हालत बना ली, जिसमें वह इन राज्यों में अपने बलबूते पर चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी भी नहीं तलाश पायेगी।

अब भारतीय जनता पार्टी भी धीरे धीरे पूर्वोत्तर में उसी बीमारी की शिकार होती नजर आ रही है। नगालैंड, मेघालय और त्रिपुरा में हुए विधानसभा चुनावों का ताल्लुक केवल चुनाव जीतने वालों से नहीं था बल्कि जो इन चुनावों में हारे हैं वे भी अहम राजनीतिक खिलाड़ी बन सकते हैं।

भारतीय जनता पार्टी ने त्रिपुरा में सत्ता बरकरार रखी लेकिन वह टिपरा मोथा पार्टी (टीएमपी) को पराजित करने में नाकाम रही। टीएमपी एक नया राजनीतिक दल है जो भाजपा के नागरिकता कानून का विरोध करके तथा एक अलग राज्य की अपनी मांग के साथ राज्य की राजनीति को बदलने का वादा करता है।

याद रखना होगा कि लोकपाल आंदोलन से उभरी पार्टी को भी कांग्रेस और भाजपा ने इसी ढंग से नजरअंदाज किया था। नतीजा है कि दिल्ली के अलावा पंजाब में भी आज आम आदमी पार्टी की सरकार है।

दिल्ली में भाजपा और कांग्रेस लगातार पिछड़ते जा रहे हैं। इस बार के नगर निगम चुनाव में भी आप ने भाजपा को एमसीडी के चुनाव में पछाड़ दिया है। इससे साबित होता है कि गणेश परिक्रमा करने वालों के सहारे पार्टी को जमीन पर नहीं टिकाये रखा जा सकता है।

पूर्वोत्तर के मामले में भाजपा ने कहा है कि उसे राज्य के स्थानीय लोगों के लिए अलग राज्य की मांग के अलावा टीएमपी की किसी बात से एतराज नहीं है। पहचान की राजनीति जो त्रिपुरा में हमेशा बहुत अहम रही है, वह 2018 के चुनावों में भाजपा की जबरदस्त जीत के बाद ठंडे बस्ते में चली गई थी।

परंतु अब जबकि टीएमपी ने खुद को मुख्य विपक्षी दल के रूप में स्थापित कर लिया है तो यह मुद्दा ज्यादा समय तक दबा नहीं रहेगा। नगालैंड में भाजपा नैशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) की कनिष्ठ साझेदार बनने को तैयार हो गई है।

इस बार नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) जो एक समय उसका साझेदार था और जो पूर्वोत्तर का सबसे पुराना राजनीतिक दल है, वह विपक्ष में बैठेगा। नगा समझौते को लेकर निराशा के बीच यह कहा नहीं जा सकता है कि एनपीएफ क्या भूमिका निभाएगा।

मेघालय में युवा कॉनार्ड संगमा को हकीकत से दो चार होना पड़ा। चुनाव के ठीक पहले भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ने वाले संगमा को बहुमत हासिल न होने के कारण उसी भाजपा से समर्थन मांगना पड़ सकता है जिसने उन पर आरोप लगाया था कि वह परिवारवाद करते हैं।

लेकिन दो विधायकों वाली पार्टी ने इस संभावना को फिलहाल रोक रखा है। भाजपा ने प्रचार अभियान के दौरान यह भी कहा था कि वह नैशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) के नेतृत्व वाली सरकार के भ्रष्टाचार की जांच कराने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति करेगी।

अगर वह एनपीपी के साथ गठबंधन करती है तो उसे यह तय करना होगा कि वह संगमा पर भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के आरोपों की अनदेखी करने को तैयार है या नहीं। इन चुनावों से एक और कहानी निकल कर आ रही है: त्रिपुरा एक समय वाम मोर्चा का गढ़ हुआ करता था लेकिन कांग्रेस के साथ गठजोड़ के बावजूद उसे वहां केवल 11 सीट पर जीत मिली।

टिपरा मोथा पार्टी के मजबूत प्रदर्शन ने गठबंधन की संभावनाओं को क्षति पहुंचाई जो 60 सदस्यीय विधानसभा में 13 सीट हासिल करने में कामयाब रही। कांग्रेस के पास भी खुश होने की कोई वजह नहीं है लेकिन यह पूरी तरह अप्रत्याशित भी नहीं है।

परंतु तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) का कमजोर प्रदर्शन अवश्य उल्लेखनीय है। मेघालय के वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं ने टीएमसी का रुख किया लेकिन पश्चिम बंगाल के बाहर मेघालय और त्रिपुरा दोनों राज्यों में पार्टी का प्रदर्शन कमजोर रहा।

फिलहाल यह कहा जा सकता है कि गोवा और हरियाणा समेत तमाम अन्य जगहों पर तृणमूल कांग्रेस जहां भी चुनाव लड़ी है, पार्टी को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। कुल मिलाकर यह माना जा सकता है कि अतीत में कांग्रेस की तरफ से जो गलतियां हुई थी, अब भारतीय जनता पार्टी उन्हें दोहरा रही है।

इससे पार्टी का जनाधार कमजोर हो रहा है। सिर्फ प्रचार के बलबूते पर शोर शराबे की राजनीति से वोट पर पार्टी की पकड़ बनी रहेगी, ऐसा मान लेना गलती होगी। देश में वैसे भी आम जनता से जुड़े अनेक मुद्दे हैं जो भाजपा के प्रचार को कमजोर कर रहे हैं। लिहाजा उसे भी जमीनी हकीकत को समझने पर ध्यान देना चाहिए।

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