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दिल्ली का दंगल में एक फर्जी पहलवान क्यों

दिल्ली का दंगल दरअसल भाजपा वनाम आम आदमी पार्टी है। दोनों दलों के नेता दिल्ली नगर निगम के महापौर के लिए जोर आजमाइश कर रहे हैं। इस दंगल में फिर से भाजपा ने एक उपराज्यपाल को आगे कर दिया है। उप राज्यपाल के बहाने सारे फैसले केंद्रीय गृह मंत्रालय ले रहा है, इस पर अब संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है।

फिर भी विवाद जारी रहने के बाद अब शब्दों की मर्यादा भी समाप्त हो रही है। दूसरी तरफ शीर्ष अदालत में इस बात पर जोरदास बहस हुई है कि दिल्ली में कार्यरत अधिकारियों पर प्रशासनिक अंकुश किसका रहे। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी इस मायने में महत्वपूर्ण है कि अगर सारे फैसले केंद्र सरकार को ही लेने हैं तो वहां एक चुनी हुई राज्य सरकार क्यों हैं।

दरअसल केंद्र वनाम दिल्ली सरकार का विवाद इससे पहले कभी भी इस स्थिति तक नहीं पहुंचा था। इसलिए समझा जा सकता है कि दरअसल भाजपा की परेशानी आम आदमी पार्टी के तेजी से बढ़ते जनाधार को लेकर है। दिल्ली विधानसभा में भाजपा की मौजूदगी नगण्य है और अब मेयर पद के जरिए वह दिल्ली की जनता के बीच अपनी सक्रियता बनाये रखने की कोशिश कर रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट में इस विषय पर बहस पहली बार नहीं हो रहा है। पूर्व में भी अरविंद केजरीवाल की सरकार के फैसलों पर रोक लगाने के लिए इससे पहले के राज्यपाल विवादों में आये थे। इस बार निशाने पर बीके सक्सेना आ गये हैं। वैसे इस पर भी विचार होना चाहिए कि इस देश में बोलने की आजादी का अधिकार हर किसी को है।

लेकिन इस अधिकार के साथ इसकी गरिमा का खयाल रखने की जिम्मेदारी भी लोगों की ही है। अगर इस सुविधा को बेलगाम बोली और बर्ताव की छूट के तौर पर देखा जाएगा तो इस पर सवाल उठेंगे। खासतौर पर किसी जिम्मेदार पद पर बैठ कर कोई जनप्रतिनिधि इस संवैधानिक अधिकार की गरिमा कायम रखने के बजाय बोली में मर्यादा का खयाल रखना जरूरी न समझे, तो यह एक गंभीर स्थिति है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में अरविंद केजरीवाल के पास यहां के शासन को संचालित करने के लिए पद से जुड़े कई अधिकार हैं। लेकिन जनप्रतिनिधि और विशेष रूप से मुख्यमंत्री होने के नाते अपने पद और उसकी मर्यादा को बनाए रखना भी उनकी नैतिक जिम्मेदारी है।

इसके उलट हालत यह है कि अगर उनकी सरकार में कामकाज से जुड़ी प्रक्रिया से संबंधित कोई अड़चन खड़ी होती है तो इस पर विचार करने के बजाय वे नाहक बिफर जाते हैं। जबकि उनके पद और कद को देखते हुए यह स्थिति खुद उनकी ही गरिमा को कठघरे में खड़ा करती है।

गौरतलब है कि सरकारी कामकाज में उपराज्यपाल की ओर से कथित हस्तक्षेप के आरोप के साथ अरविंद केजरीवाल न सिर्फ उनके कार्यालय तक निकाले गए जुलूस में खुद शामिल हुए, बल्कि इससे बाद उन्होंने कुछ ऐसी भाषा में बात की, जिसे मर्यादा के अनुकूल नहीं कहा जा सकता।

उन्होंने उपराज्यपाल पर ‘सामंती मानसिकता से ग्रस्त’ होने का आरोप तो लगाया, लेकिन खुद ही जिन शब्दों का प्रयोग किया, वह उनकी मंशा को कठघरे में खड़ा करता है। दूसरी तरफ खुद उप राज्यपाल भी अपने फैसलों से यह साफ कर रहे हैं कि वे सिर्फ भारतीय जनता पार्टी के हितों की रक्षा के लिए वहां हैं।

अपुष्ट जानकारी के मुताबिक एक अनौपचारिक बात चीत में उन्होंने यह कहा भी है कि उनकी वजह से ही भाजपा को दिल्ली नगर निगम के चुनाव में इतनी सीटें आयी हैं। इसलिए उन्हें भी इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि जो सरकार अभी दिल्ली की गद्दी पर बैठी है, उसे दिल्ली के मतदाताओं ने ही चुनकर वहां भेजा है।

लेकिन तथ्य यह भी है कि जनता ने उनके पद के साथ संवैधानिक व्यवस्था के तहत कुछ जवाबदेही निभाने के लिए भी चुना है, जिसमें लोकतंत्र की गरिमा और मर्यादा कायम रखना सबसे ऊपर है। दिल्ली के शासन-प्रशासन और सरकार के ढांचे में उपराज्यपाल पद की एक भूमिका और उसके मुताबिक जिम्मेदारियां तय की गई हैं।

अब दोनों तरफ से इस जिम्मेदारी का सही तरीके से पालन नहीं हो रहा है। यह अलग बात है कि अब भाजपा वाले दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की अपनी पुरानी मांग का उल्लेख नहीं करते हैं। कुल मिलाकर दोनों दलों की इस खींचतान का असली राज राजनीतिक वर्चस्व को लेकर है।

पंजाब में चुनाव जीतकर तथा गुजरात में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने के बाद अरविंद केजरीवाल की पार्टी उस राजनीतिक शून्य का लाभ उठाना चाहती है जो इन दूसरे दलों के द्वारा नहीं भरा गया है। दूसरी तरफ भाजपा यह जानती है कि दिल्ली के शासन में नीचे से ऊपर तक नहीं होने का राष्ट्रीय राजनीतिक नुकसान उसके लिए भारी पड़ सकता है। इसलिए उसने दंगल में अपनी तरफ से नकली पहलवान को उतार रखा है।

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