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अब झारखंड में फिर से तेज होगी उठा पटक की दलीय राजनीति

  • आदिवासी अध्यक्ष नहीं होने से कांग्रेस को नुकसान

  • भाजपा में रघुवर दास खेमा कब्जा करने के जुगाड़ में

  • दोनों दलों को अंदरूनी गुटबाजी से हो रहे भारी परेशानी

राष्ट्रीय खबर

रांचीः राजनीतिक पहलवान अब मकर संक्रांति के बाद दही चूड़ा खाकर फिर से दंगल में उतर जाएंगे। इससे पहले खरमास का असर कम और ठंड का असर अधिक होने की वजह से ऐसी गतिविधियां थोड़ी सुस्त पड़ गयी थी। अब दोनों बड़े दलों की बात करें तो बाहर से देखने पर दोनों का नजारा लगभग एक जैसा नजर आ रहा है।

कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष के खिलाफ विरोध के स्वर तेज होते जा रहे हैं। आलोक दूबे और उनके समर्थकों ने खुले तौर पर उनके खिलाफ गंभीर आरोप लगा दिये हैं। दरअसल इसके पीछे की कहानी को समझने के लिए पिछले विधानसभा चुनाव में दलों को मिले वोटों के प्रतिशत को समझ लेना होगा।

पिछले चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा ने अपने बलबूते पर 18.72 प्रतिशत वोट हासिल कर तीस सीटों पर जीत दर्ज की थी। दूसरे नंबर पर रही भारतीय जनता पार्टी को यूं तो 33.37 प्रतिशत वोट मिले थे लेकिन उसके 25 विधायक ही जीते थे। झामुमो के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस को 13.88 प्रतिशत वोट मिले थे और उसके 16 विधायक जीते थे।

उस समय बाबूलाल मरांडी भाजपा से अलग थे और अपने बलबूते पर चुनाव लड़कर 5,45 प्रतिशत वोट से तीन विधायक ले आये थे। यह बाद की बात है कि अब बाबूलाल मरांडी भाजपा में हैं जबकि दो अन्य विधायक प्रदीप यादव और बंधु तिर्की कांग्रेस में है।

इस चुनाव की खास बात यह थी कि बोकारो, धनबाद, बाघमारा, हटिया, कांके, पांकी और डाल्टनगंज की सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे थे। अब आरपीएन सिंह के कांग्रेस से भाजपा में चले जाने के बाद यह खेल सबकी समझ में आ गया है।

वरना इन सभी सीटों में से धनबाद और पांकी को छोड़कर शेष में हार जीत का अंतर बीस हजार से कम था जबकि बाघमारा में यह अंतर सिर्फ 824 वोटों का था। आरपीएन सिंह द्वारा डॉ रामेश्वर ऊरांव के बदले राजेश ठाकुर को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाना आदिवासी समाज को नागवार लगा था।

वरना राज्य बनने के पहले से ही इंदिरा गांधी के कार्यकाल में जब झारखंड क्षेत्रीय कांग्रेस कमेटी को मान्यता दी गयी थी तो उसके पहले अध्यक्ष टी मुचिराय मुंडा बने थे। उसके बाद आरपीएन सिंह ने भाजपा की तर्ज पर यहां गैर आदिवासी सवर्ण अध्यक्ष बनाकर एक बहुत बड़े वर्ग को कांग्रेस से अलग कर दिया था। इसका नतीजा है कि अब भी पार्टी के निचले स्तर पर वह भरोसा कायम नहीं हो पाया है जो डॉ रामेश्वर ऊरांव के वक्त पर था।

अब भाजपा की बात करें तो रघुवर दास के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद से ही समीकरण बदल गये थे। इसके बाद भी उनका खेमा अब भी इस बात की जद्दोजहद मे जुटा है कि पार्टी संगठन पर उनका कब्जा कायम रहे।

जातिगत समीकरणों की वजह से झारखंड भाजपा में उन्हें नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता क्योंकि बनिया और तेली का समर्थन भाजपा की जीत में प्रमुख भूमिका निभाता है। अब प्रदेश अध्यक्ष के राज्यसभा सांसद बन जाने के बाद फिर से वहां कुर्सी दौड़ शुरू हो चुकी है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सभी जानते हैं कि इस बार जो प्रदेश अध्यक्ष बनेगा वह आगामी लोकसभा चुनाव तक इस कुर्सी पर काबिज रहेगा।

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