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पारसनाथ मूल रूप से आदिवासी समाज का है और रहेगाः नायक

रांचीः मारंग बुरू(पारसनाथ) आदीवासी और मुलवासी समाज का है और रहेगा। अगर सरकार  या फिर  कोइ इससे छेड़ छाड़  किया तो इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। उपरोक्त बातें आज झारखंडी सूचना अधिकार मंच के केंद्रीय अध्यक्ष सह झारखंड बचाओ मोर्चा के केंद्रीय संयोजक सह हटिया विधान सभा क्षेत्र के पूर्व प्रत्याशी विजय शंकर नायक ने कही।

उन्होंने आगे कहा कि पारसनाथ पहाड़ी और उसके आसपास रहने वाले आदिवासी मूलवासी पारसनाथ को मारंग बुरू के नाम से ही जानते हैं। पारसनाथ की पाहड़ियों पर एक आदिवासी मंदिर भी है, जिसके बारे में बहुत ही कम लोग जानते हैं। गैजेटियर ऑफ बिहार (हजारीबाग जिला, 1932) में इस पूरी पर्वत श्रृंखला को मारंग बुरू के नाम से जाना जाता था।

हर सरहूल के समय यहां पूजा की जाती थी और आदिवासी मूलवासी लोग यहां शिकार किया करते थे। परंतु, जैन संप्रदाय के लोगों का वर्चस्व बढ़ने के बाद यहां सब बंद हो गया। श्री  नायक ने आगे यह भी कहा कि यह बहुत अजीब बात है कि सालों से जैन धर्म को मानने वाले लोग इस जगह का इस्तेमाल कर रहे हैं। आदिवासी  मूलवासी के जमीन पर बड़ी-बड़ी इमारत, मंदिर और आश्रम बना रहे हैं, लेकिन आदिवासियों को इससे नुकसान के सिवाय कुछ नहीं मिल रहा।

जबकि संविधान की 5वीं और 6वी अनुसूची के अनुसार आदिवासियों मूलवासी के स्वामित्व वाली जमीन को गैर-आदिवासी नहीं खरीद सकते। लेकिन यहां धड़ल्ले से जैन संप्रदाय के लोग जमीन खरीद रहे हैं तथा ऊंचे-ऊंचे आश्रम बना रहे हैं। इमारतें बनाते वक्त वहां रहने वाली आदिवासी मूलवासी जनता को आश्वासन दिया जाता है कि उन्हें नौकरी, स्वास्थ्य और उच्च शिक्षा मिलेगी।

प्रारंभ में कभी कुछ सुविधाएं दी भी जाती हैं, परंतु जैसे-जैसे संस्थान यहां अपने पैर पसार लेती हैं तब सुविधाएं बंद कर दी जाती हैं जो जांच  का विषय  है। इन्होने  यह भी आगे बताया कि इन आश्रमों में पानी के लिए बोरिंग का इस्तेमाल होता है, जिसके जरिए भूगर्भीय जल का दोहन किया जाता है। दुखद यह है कि नहाने और शौच के बाद इस्तेमाल किए गए पानी को पास की नदी में ही डाल दिया जाता है।

इसका सीधा अर्थ निकलता है कि यहां जो जैन संस्थान को चला रहे हैं, उनका आदिवासी मूलवासियों और उनकी जमीन के प्रति कोई संवेदनशीलता नहीं है। श्री नायक ने आगे कहा कि पारसनाथ पहाड़ी पर चढ़ते हुए आपको कई बोर्ड दिखेंगे कि यह पवित्र स्थल है। यहां मांस, मछली, मदिरा पीना या धूम्रपान करना सख्त मना है।

यह देखने में चाहे आपको डरावने न लगे, परंतु आप सोचिए जिन आदिवासियों की जमीन पर पारसनाथ खड़ा है, उन आदिवासियों की पूजा-पाठ में ही बलि का विधान है। इस तरीके से जैन लोग जो बाहर से यहां आए हैं, उन्होंने यहां अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है। यहां की जमीन, कामकाज, प्राकृतिक संपदा और संस्कृति पर अपना अधिकार किया और उन आदिवासियों मूलवासी  समाज  को ही पीछे कर दिया जो यहां के मूलनिवासी थे।

पारसनाथ पहाड़ी पर चढ़ने के दौरान बहुत सारे आदिवासी मूलनिवासी आज भिखारी के समान जीने को विवश हैं।  ऐसा दृश्य  पहली बार देखा गया कि  जंगल-जमीन होने के बावजूद यहां आदिवासी मूलवासी भीख मांगने के मजबूर हो गया है। श्री नायक  ने कहा कि सबसे दुख की बात यह कि झारखंड की आदिवासी मूलवासी सरकार ही अपने लोगों को नज़रअंदाज कर रही है।

आदिवासियों मुलवासी के कई एकड़ जमीन जाने के बावजूद भी सरकार अतिक्रमणकारियों से जवाब तलब नहीं करती। जैन संस्थानों द्वारा अस्पताल, स्कूलों के वादों को पूरा न करने पर सरकार द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की जाती है। कई बार तो यूं होता है कि आदिवासियों को जमीन का दस्तावेज देना पड़ता है। जैसे वे ही बाहर से आकर यहां बसे हों। कम शब्दों में बस इतना कहना चाहूंगा कि यहां लोग बस्तर से भी ज्यादा दर्दनाक जीवन लोग जी रहे हैं और  हेमन्त  सोरेन  सरकार  मूकदर्शक  बनी हुई  है जिसका विरोध  किया जायेगा ।

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